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________________ पूज्यश्री के चरण १२-४-२०००, बुधवार चैत्र शुक्ला - ९ : पालीताणा * अत्यन्त दुर्लभ चारित्र - रत्न हमें अनायास ही प्राप्त हो गया है । अतः ऐसा प्रयत्न करें कि भीतर विद्यमान आत्मदेव प्रकट हो जाये । भवसागर में डूबने वाले के लिए चारित्र जहाज - तुल्य है । जहाज में से कूदकर समुद्र में डूब जाने वाला व्यक्ति जहाज को दोषी नहीं ठहरा सकता । चारित्र को नहीं पालकर दुर्गति का भोग बनने वाला व्यक्ति चारित्र को दोषी नहीं ठहरा सकता । * आदिनाथ के दरबार में जाने से जो सन्तोष होता है वह यहां नहीं होता । अतः हम कष्ट सह कर भी ऊपर जाते हैं । ये 'दादा' हमारे भीतर भी बिराजमान हैं। उसे प्राप्त करने के लिए चाहे जितना कष्ट हो, तो भी वहां जाना छोड़ना नहीं चाहिये । भगवान को अन्तर्यामी कहा गया है । ( अन्तर्यामी सुण अलवेसर' यह स्तवन हम बोलते ही हैं ।) अन्तर्यामी अर्थात् क्या ? जो सबके घट में, अन्तर में बिराजमान रहे वह अन्तर्यामी कहलाता है । इन अन्तर्यामी को हमें मिलना है । नवपद की आराधना के द्वारा हमें यही करना है । कहे कलापूर्णसूरि २ कळ १२१
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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