SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ श्रीमद्भगवद्गीता क्योंकि, इस अवस्था अमृतसे उत्पन्न ( "अमृतोद्भव" ) कहा गया है। में साधकका सहस्रारसे क्षरित सुधा अविश्रान्त मूलाधार स्थित क्षमा को अभिषेक करता रहता है; और उसी अमृतकी गति पलट जाने के सबब से उसमें और अपक्षय नहीं होता । इस अपक्षय शून्य अवस्था में ही वह स्वर श्रवण में आता है । इस अवस्था में शक्ति अग्निकी क्रिया होती है (बहिर्मुखी वृत्ति नहीं रहती), इसलिये उच्चैःश्रवाको इन्द्र वाहन कहते हैं । 1 "ऐरावतं गजेन्द्राणां” । ऐरावत - ( इरा = जल, और वत् = सदृश) जलके सदृश, परन्तु जल नहीं, तृष्णा निवारण-क्षम तृप्ति विशेष । "गज" कहते हैं जो स्पश-मुखसे गल जाता है, जो स्पर्श-सुख से श्रात्महारा होता है । और इन्द्र कहते हैं श्रेष्ठको । अर्थात् जो केवल स्पर्शसुखसे आत्महारा होकर जगत् के समस्त विषयोंका तृष्णा निवारणक्षम तृप्ति भोग करे उसको 'गजेन्द्र' ( ऐरावत ) कहते हैं। अब साधक ! तुम अपने में इसे मिला लो । जब तुम मणिपुर से अष्टधा वलयाकारा स्थान भेद करके अनाहत ( मोहके स्थान ) भेद करने चलो, उस समय तुम स्पर्श- सुखसे इतना मोहित इतना आत्महारा होते हो जिसमें, तुम्हारे शरीर के सब रोम खड़े हो जाते हैं; तुम्हारे सारे शरीर में कम्पन आ जाता है, - शीत नहीं, ठण्ढा नहीं परन्तु कम्पन; ऐसा कम्पन जिसका किसी प्रकार निवारण किया जा नहीं सकता, तुम्हारे पगसे मस्तक पर्यन्त भीतर बाहर कम्पायमान करा देता है । उस समय तुम्हारे हृदय में और मस्तक में ऐसी सुरसुराहट ठण्डी ठण्डी स्पर्शशक्तिकी अनुभूति होगी, जो तुमको जगत्के समस्त भोगी तृप्ति मिला देती है। कोई विषय नहीं, कोई भोग नहीं, किसीकी प्राप्ति भी नहीं, परन्तु समस्त प्राप्तिकी प्राप्ति पाते पाते ऊपर उठकर तुम विलीन हो जाते हो। तब तुम्हें क्या बाहर, क्या भीतर (अभ्यन्तर ) किसी प्रकारका बोध नहीं रहता । इस अवस्था में
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy