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________________ दशम अध्याय सबकी सामजस्य रखने के लिये मूलाधारसे सहस्रार पर्य्यन्त प्रति कमलमें यथाक्रम अनुसार, कात्ति, श्री, वाक् , स्मृति, मेधा, धृति, और क्षमा नामसे सात मातृका शक्ति हैं। क्रियाकालमें जब बहिराकाशकी वायु शरीरमें प्रवेश करती है, तब मूलाधारसे कीत्ति उठती है और सहस्रार से क्षमा उतरती है, इन दोनों शेष शक्तिके आवागमनमें समुदय मध्य शक्तिकी अवस्थान्तर प्राप्ति होती है। क्षमाके स्थानमें कीर्ति जब उठ बैठी, तत्क्षणात् कीर्तिकी कृतीत्व लोप हो गया, और क्षमा कीर्तिके स्थानको अधिकार करते ही वहां क्षमात्वका विस्तार कर देता है। बीच वाली शक्तियां जिस प्रकार प्रारम्भिक अवस्थामें क्रिया करती थीं (जो सृष्टि-पालिनी थी), अब उनके क्रिया विपरीत हो गई, अर्थात् ब्रह्ममुखी हो गई। इसलिये षट्पद्मके प्रतिपत्रके वायुकी विपरीत गति हुई, अर्थात् संसार-मुखमें जो जो कार्य करती थीं, सो सब समेटकर असंसार-मुखमें अपनी अपनी शक्ति फेकने लगीं। इन समस्त समष्टि शक्तिसे चौदह प्रकारके स्वरका आविर्भाव हुआ। ये समस्त शब्द विच्छेद शून्य निरन्तर और ऊँची दिशामें सुना जाता है; इसलिये "उच्चैःश्रासं" नाम रक्खा गया और यह अविच्छेद • निरन्तरत्व हममें ही प्रतिष्ठित रहनेसे मैं ही उच्चैःश्रवा हूं। उच्चैःश्रवा अश्वके भीतर प्रधान है। अश्व क्या है ? अश्व कहते हैं दूसरेको जो अपनी पीठपर लादकर घुमे अर्थात् भारवाही पशु। शरीरके भीतर जो सब बायु निश्वासरूपसे मनको पीठ पर धरकर बाहर लाके शब्दस्पर्श-रूप-रस-गन्धको संग्रह कराकर फिर प्रश्वास रूपसे भीतर मनोमय कोषमें ले जाकर उन सबको भोग करावे, वही निश्वास और प्रश्वास रूप दोनों प्रकारकी वायुको अश्व कहते हैं। इनमेंसे मनको जो नाद के भीतर ले जाकर तद्विष्णुका परमपद साक्षात् करा देता है, वही उच्चैःश्रवस है, जैसा ऊपर कहा गया है। _ विच्छेद ही मृत्यु है और अविच्छेद अमृत। इस अविच्छेदके ध्वनिसे इस अवस्थाका परिज्ञान होता है इसलिये उच्चैःश्रवसको
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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