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________________ २६ दशम अध्याय अवस्था कहते हैं। देवतोंके भीतर जो लोग इस अवस्थापन्न हैं, वह समस्त ही "देवर्षि' हैं; उन सबके भीतर मैं नारद हूं। "नार" शब्द में विष्णु, "द” शब्दमें दान; विष्णुको जो मिला दे वही 'नारद” हैं। "विष्णु" कहते हैं व्यापक-चैतन्य आत्माको। व्यापक-चैतन्य ही ब्रह्म है; इस ब्रह्मका जो उपदेष्टा है, वही ब्रह्मविद् है। वह ब्रह्मविद् ही नारद है। "ब्रह्मविद् ब्रह्म व भवति”, इस कारणसे नारद भी मैं हूँ। "गन्धर्वाणां चित्ररथः”। गन्धर्व-(गन्ध अर्थमें हिंसा, अर्व अर्थ में गमन करना ) अर्थात् युद्धकालमें जो लोग हिंसाके लिये गमन करते हैं, अर्थात् क्रिया लेनेके बाद समयसे ही मायिक विषयामात्रके ऊपर जिन सबका तीब्र अनास्था रहे। गन्धर्वगण मार्ग ( ऊपरवाले ), और देशवाली ( जातीय ) दो प्रकार संगीत जानते हैं और शिक्षा देने में भी क्षमवान् हैं; परन्तु संगीत शास्त्रमें भी उन सबका सम्यक् संस्कार नहीं है। यहां भी साधकका सप्तसुरा नाद उठा है, मतवारा कर देता है, साधक उनमेंसे बहुतोंको समझता है, नहाँ भी समझता है। कोई सिखे तो इतनी दूर तक उसको शिक्षा भी दे सकता है; ऐसे अवस्थापन्न साधकोंको गन्धर्व कहते हैं। इन सभोंके भीतर "चित्ररथ"चित्र अथमें नाना रंगके अंकन, और रथ कहते हैं विश्रामवाले अति उच्च स्थानको (इच्छानुरूप जिसका चालन और स्तम्भन किया जा सकता है )। साधकमात्रको यह स्थान मालूम है। इस स्थानमें उठ के बैठनेसे मायाकी घोर नहीं रहती। जहां मायाकी घोर नहीं है वहां जो रहते हैं उन्होंको "चित्ररथ" कहते हैं। मैं भी मायाकी घोर में नहीं रहता इसलिये मैं "चित्ररथ" हूँ। "सिद्ध"-जो सब साधक साधना समाप्त कर चुके, और करनेका कुछ भा बाकी नहीं, केवल साधनाका फलभोग मात्र अवशिष्ट है, वही सब सिद्ध हैं। इस अवस्थामें अन्तःकरणकी वृत्तिमात्र भी रहता नहीं; इस कारणसे मुनि हैं। "मुनि संलोनमानसः”—मानस-च्यापार
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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