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________________ श्रीमद्भगवद्गीता अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणाञ्च नारदः। गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः॥ अन्वयः। ( अहं ) सर्ववृक्षाणां (मध्ये) अश्वत्थः, देवर्षीणां च नारदः, गन्वर्वाणां चित्ररथः, सिद्धानां कपिलः मुनिः ( अस्मि ) ।। २६ ।। अनुवाद। मैं वृक्ष समूहके भीतर अश्वत्थ, देवषियोंके भीतर नारद, गन्धर्वो के भीतर चित्ररथ और सिद्धपुरुषों के भीतर कपिलमुनि हुँ ।। २६ ॥ व्याख्या। अश्वत्थः-अ+श्व+त्+थ। 'अ' =नास्ति + "श्व" = दूसरे रोजके प्रभात काल; अतएव 'अश्व' अर्थमें समझाया जिसमें दूसरे रोज नहीं है, जो चिरन्तन अनादि है। 'त' =तरण वा पार होना, “थ” = पञ्चप्राण, पञ्चदेव, त्रिशक्ति और त्रिविन्दु युक्त कुण्डली शक्ति-माया। तभी हुआ माया पारमें जो चिरन्तन अनादि, वही अश्वत्थ है। वृक्ष-वृक्ष = वेष्टन करना, और अनास्ति; जिसको कोई वेष्टन कर नहीं सकते, जिससे कोई बड़ा नहीं, जो सबसे बड़ा, वही वृक्ष शब्द वाच्य है। यह जो पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, ये सब भी महानसे महान हैं। इन सबको ही "सर्व" कहते हैं। ये सब भी 'वृक्ष" हैं। क्योंकि, इन सबको भी वेष्टन करना सहज नहीं है। परन्तु बह धातु मन् प्रत्ययमें जो अर्थ संग्रह होता है, जिसको ब्रह्म कहते हैं; भूत प्रपञ्च उस ब्रह्मके तुलनामें नगण्य गिनतीमें आता ही नहीं, अस्थायी और सीमाबद्ध है। वह ब्रह्म “मैं” बिना और कोई नहीं है, और वह प्राकृतिक पदार्थ जितना बड़ा ही हो, कोई भी मुझ ( मैं ) को वेष्टन कर नहीं सकता; इस कारणसे सब वृक्षों के भीतर मैं "अश्वत्थ" हूँ। अश्वत्थ क्षणविश्वंसी अर्थात् जहां क्षणका भी उदय नहीं होता। "देवर्षि" एक अवस्था विशेष है। जिस अवस्थामें कारण मूर्ति और अर्थके साथ प्रत्येक वर्णका परिज्ञान होता है उसीको ऋषि
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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