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________________ श्रीमद्भगवद्गीता अर्थमें अग्नि, जो पवित्र करता है। हममें आकरके सब कोई पवित्र होता है, इसलिये मैं पावक हूँ। "मेरुः शिखरिणामहम्"। शिखरी कहते हैं पर्वत अर्थात् ऊंचे स्थानको। तिसके भीतर पूनः मेरु सबसे ऊंचा है। अब साधक देखो, भीतरमें मायाके अंशमें, विवस्वान्के ऊपरमें ही "मैं" हूं ॥ २३ ॥ पुरोधसाब्च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् । सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः॥ २४ ॥ अन्वयः। हे पार्थ ! मां पुरोधसां मुख्यं बृहस्पतिं विद्धि अहं सेनानीनां स्कन्दः, सरसा च सागरः अस्मि ।। २४ ।। अनुवाद। हे पार्थ ! पुरोहित्गणका प्रधान बृहस्पति कह करके मुझको जानो, सेनानीगणके भीतर कार्तिक भी मैं और जलाशयोंके भीतर समुद्र भी मैं हूँ ॥ २४ ॥ व्याख्या। "पुरोधस्” शब्दका अर्थ पुरोहित है अर्थात् पहलेसे जो धारण कर रहे हैं। ( केवल क्षत्रिय-बलसे कार्य सिद्धि नहीं होती। क्षत्रिय-बलके साथ ब्रह्म-बलका प्रयोजन है। इसलिये राजाओंका रक्षाकर्ता अर्थात् धारयिता पुरोहित ही है। अतएव पुरोधस् शब्दमें "आगेसे जो धारण कर रहे हैं" वही समझा जाता है । क्योंकि, राजाका अग्निहोत्रादि रक्षा पुरोहित हो करते हैं )। जो धारण कर रहे हैं, वह मायाको ही धारण कर रहे हैं। यह माया ही 'बृहत् है। इस बृहत्के पति "बृहस्पति" है। राजर्षि जनकको ब्रह्मज्ञानका उदय होनेसे जनकने इस प्रकार कहा था, "अहो! मैं क्या आश्चर्य हूँ ! मैं अपने आपको नमस्कार करता हूँ; मेरे सदृश कृती और कोई भी नहीं, क्योंकि इस शरीरके साथ छूआ छूत न रख करके भी मैं शरीर रूप विश्वको चिरकाल धारण कर रहा हूँ" *। इसलिये * अहो अहं नमो मां दक्षो नास्ति हि मत्समः। असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम् ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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