SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टादश अध्याय ही करनी होगी, सोना तो है नहीं, पर बहुत क्षण क्रिया की गई, अब दो चार क्षण के लिये थोड़ा लम्बे पड़के शरीरको जड़ताको नष्ट कर लेनेसे अच्छा होगा, दो एक मिनट के बाद ही उठ करके पुनः क्रिया का प्रारम्भ किया जावेगा।" स्वभावकी यह सल्लाद और युक्ति क्षण भरके भीतर ही तब मनमें अकाट्य होता है। किस प्रकार अकाट्य होता है इसे जो भोग चुके हैं वही समझेंगे। उसी युक्ति के अनुसार ज्योंही एक क्षणके लिये लम्बे पड़के करवट लिया, बस त्योंही सब कर्म नष्ट हो गया, स्वभावका जं जैकार हो गया, प्रगाढ़ निद्रामें एक बारगी प्रभात हो गया। सब मिट्टो ! निद्रासे उठनेके पश्चात् अनुशोचना होती है कि 'हाय, हाय, क्यों सो गये थे ?' इसलिये 'युक्त-- स्वप्नावबोध' होनेका विधान है। सोना अवश्य होगा, इसलिये इच्छा पूर्वक सोकर निद्रा लेलो, तत्पश्चात् उठा, उठकर क्रिया करो; ऐसा करनेसे ही क्रम अनुसार निद्रा जय होगी; नहों तो एकबारगी निद्रा नहीं लेऊंगा, यह कहनेसे ही स्वभाव क्योंकर छूटेगा। वह अवश्य अपने वशमें लाके निद्रामें डाल देगा, उसमें उतना परिश्रम सब व्यर्थ होगा और अनुशोचना भोग करनी पड़ेगी। इसलिये भगवान अर्जुन को बार बार कहते हैं कि “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः" अर्थात् स्वभावज कर्म के अनुष्ठान द्वारा ईश्वरकी अर्चना करनेसे सिद्धिलाभ होती है, क्रम अनुसार स्वभाव अतिक्रम हो जाता है, स्ववश हुआ जाता है। इसलिये भगवान अर्जुनको इस श्लोकमें कहते हैं कि "तुम अभी तक स्वभावज कर्ममें निबद्ध रहे हो, स्वभावको अतिक्रम कर नहीं सके अतएव स्वाभाविक कर्म करनेकी इच्छा न करनेसे भी स्वभाव तुमसे उसे करावेगाही। अतएव स्वभावके वशमें रहकर "असक्तबुद्धिः सर्वत्र" हो करके क्रिया करते चलो, स्वभाव आपही आप बदल जावेगा ॥६॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy