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________________ श्रीमद्भगवद्गीता ___ अनुवाद। हे कोन्तेय ! तुम स्वभावज स्वकीय कर्म द्वारा निबद्ध हो, मोहघशतः जिसे करनेको इच्छा नहीं करते हो, अवश्य उसे करना हो पड़ेगा ॥ ६ ॥ व्याख्या। जिसका स्वभाव जिस प्रकारका है, वह तदनुयायी वर्म करनेके लिये बाध्य है। अविवेकके मोहमें पड़ करके करनेकी इच्छा न रहनेसे भी उसका स्वभाव उसको अवश ( वशीभूत ) करके करा देता है। अतएव अर्जुन जो युद्ध न करनेकी इच्छा करते हैं, यह मिथ्या है, क्योंकि उनका पूर्व जन्मार्जित क्षत्रियस्वभाव उनको न छोड़ेगा; वर्मफलविधाता ईश्वरकी इच्छासे यथा समयमें वह प्रबल होकर के उनको अवश करके उनकी इच्छाको अभिभूत करके उनको स्वभावज कर्ममें ( युद्ध में ) नियुक्त करावेगाही। उसी स्वभावज कर्म को स्व इच्छासे सचेष्ट होकर करनेसे कर्मबन्धन क्षय होता है और अनिच्छासे स्वभावके वशमें अवश होकर करनेसे वह बन्धन और जटिल होता है। इसलिये भगवान पहले ही कहे हैं कि "स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः", और एकादश अध्यायमें कहे हैं कि 'निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्' ( इसकी व्याख्या देखो)। ऐ। अवश होकर अनभिलषित काज करना किस प्रकारका है उसे ‘क्रियाका एक अभिज्ञताका उदाहरण देकर कहता हूँ जिससे भुक्तभोगी साधक समझ लेंगे। रात्रिमें सोते हुए निद्रा जाना अस्मदादिका आजन्म स्वभाव है। मनमें निश्चय कर लिया कि आज सोने न जाऊंगा, सारी रात्रि क्रिया करूंगा। यह ठीक निश्चय करके मन भलीभांति उद्यमसे क्रिया करने लग गया। बहुत क्षणके बाद क्रियामें आपही आप एक प्रकारको ढिलाई पड़ती है, मनका उद्यम भी तब थोड़ा कम हो जाता है । उस समय स्वभाव मनके भीतर उदय होता है, मनको कैसे आच्छन्न कर फेंकता है, मन अभिभूत हो जाता है तब वह मनको युक्ति देता रहता है कि 'यह तो मार दिया गया, क्रिया करनेसे ही तो सारी रात किया जा सकता है, क्रिया सारी रात
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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