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________________ अष्टादश अध्याय १२७१ अनुवाद । अधिष्ठान, कत्ता, पृथविध करण, नानाविध पृथक् चेष्टा, और इन -सबके भीतर पञ्चम स्वरूप देव है ।। १४ ॥ व्याख्या। अधिष्ठान-जिसको "मैं' मान करके बैठा हूँ अर्थात् यह देह। कर्ता-उपाधिलक्षणसे मिलित भोक्ता। अर्थात देह, इन्द्रिय मन आदिका कोई भी मैं नहीं हूँ यह सब प्रत्येक ही मैंसे पृथक है। परन्तु अज्ञानताके कल्याणसे (आकाशमें प्रलेपके सदृश) इनके साथ जैसे मिलकर एक हो करके "मैं" सज लिया हूँ (जैसे "मैं सोचता हूँ"; मैं कभी नहीं सोचता, मन ही सोचता है; परन्तु मनके साथ मिल करके मन ही जैसे "मैं" बन गया है; यह जो हेल मेल भाव है इसी प्रकार )। पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि यह बारह करण हैं। विविध चेष्टा-४६ उन्चास वायुके आकर्षण विकर्षण और मिलनसे नाना प्रकार क्षयोदयका प्रकाश है। दैव अदृष्ट वा पूर्वकृत कर्मफलको कहते हैं ॥ १४ ॥ शरीरवाङ मनोभिर्यत् कर्म प्रारभते नरः। न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥ १५॥ अन्वयः। नरः शरीरवाङ मगोभिः यत् न्माय्यं ( धम्यं शास्त्रीयं ) विपरीतं वा (अधर्म्य अशास्त्रीयं ) कर्म प्रारभते ( करोति), तस्य ( सर्वस्य कर्मणः) एते पञ्च हेतवः ( कारणानि ) ॥ १५॥ अनुवाद। मनुष्य शरीर, वाक्य और मनके द्वारा न्याय्य वा विपरीत जो कर्म करता है, उसके ये पांच कारण हैं ॥ १५॥ व्याख्या। शरीर, वाक्य और मनके द्वारा मानव न्याय और अन्याय जितने प्रकार के काजका प्रारम्भ करते हैं, उन सब कर्मों का इन पांच बिना और कोई दूसरा कारण नहीं है ॥ १५ ॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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