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________________ सप्तदश अध्याय २४५ (विवेकिनोऽधिवेकिनो वा लोकस्य ) श्रद्धा सत्त्वानुरूपा ( सत्त्वतारतम्यानुसारिणो ) भवति; अयं पुरुषः ( संसारी जीवः ) श्रद्धामयः (श्रद्धाविकारः त्रिविधया श्रद्धया विक्रियत इत्यर्थः), यो यच्छ्दः ( याद्दशी श्रद्धा यस्य ) स एव सः ( ताइशश्रद्धायुक्तः ) ॥३॥. अनुवाद। हे भारत ! सबकी श्रद्धा सत्त्वानुरूपा होती है। यह पुरुष श्रद्धामव है; जो यादशी श्रद्वासे युक्त है वह तादृश होता है ॥ ३॥ .. व्याख्या। हे भारत ! पुरुष जिस अवस्थामें रह करके गुरूपदिष्ट पथमें वायु-चालन नहीं कर सकते, उस अवस्थामें-शास्त्रमें (वायुचालनमें ) रहनेसे जो अद्भुत विवेक ज्ञानका उदय होता है,वह ज्ञान उनमें नहीं रहता उनमें केवल गुणके वश करके श्रद्धा (कार्यकरी शक्ति ) रहती है। सत्त्वगुणकी अधिकतासे सास्विकी श्रद्धा, रजोगुणकी अधिकतासे राजसी श्रद्धा और तमोगुणकी अधिकतासे तामसी श्रद्धा प्रकाश पाती है। क्योंकि, पुरुषके अन्तःकरणको जब जो जो गुण अधिकार कर बैठते हैं, पुरुष तब उन्हीं गुणोंका श्रद्धामय होता है ॥३॥ . यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः। प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना ॥४॥ अन्वयः। सात्त्विकाः ( सत्त्वनिष्ठाः) देवान् यजन्ते ( पूजयन्ति), राजसाः यक्षरक्षांसि ( यक्षान् राक्षसांश्च ) यजन्ते, अन्ये तामसाः जनाः प्रेतान् भूतगणान् च ( सप्तमातृकादींश्च ) यजन्ते ॥ ४ ॥ अनुवाद । सात्त्विक व्यक्तिगण देवतादिकी पूजा करते हैं, राजस व्यक्तिगण यक्षरक्षको पूजते हैं, और अन्यान्य तामस व्यक्तिगण प्रेत और भूतोकी पूजा करते हैं ॥ ४ ॥ व्याख्या। पुरुष सात्त्विकी श्रद्धाके उदय कालमें देव देवीकी, राजस श्रद्धाके उदय होनेसे यक्ष और राक्षसकी, तथा तामसी श्रद्धाकी क्रिया समयमें भूत-प्रेतकी पूजा करते हैं ॥४॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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