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________________ श्री . २४४ श्रीमद्भगवद्गीता शास्त्रविधि (गुरुप्रदर्शित वायु चालनके उपदेश ) को उल्लंघन (परित्याग ) करा देता है; क्योंकि ब्रह्मनाड़ीके ठीक बीचमें रहने न दे करके इन सबके साथ संस्पर्शदोष लगाता है ( ५ म अः १० म लोक )। यह जो यजन-निष्ठा ( देवदेवीकी उपासना और तत्तद्विषय में तन्मयी हो करके रहना ) है, यह निष्ठा ( श्रद्धा ) सत्व, रजः, अथवा तमः है ? हे कृष्ण ! सो तुम मुझसे कहो ॥ १ ॥ श्रीभगवानुवाच । त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा । सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥२॥ अन्वयः। देहिनां श्रद्धा स्वभाषजा ( स्वभावः पूर्वसंस्कारस्तस्माज्जाता ), सा (श्रद्धा) सात्त्विकी राजसी च तामसी च इति त्रिविधा एव भवति; तां ( इमां त्रिविधां श्रद्धा ) शृणु ॥२॥ अनुवाद। देहियोंकी श्रद्धा स्वभावज है; वह सात्त्विकी, राजसी और तामसी तीन प्रकारकी होती हैं। उन्हें श्रवण करो ॥२॥ व्याख्या। निजबोधसे विचारका सिद्धान्त करते हैं। देहियोंका आजन्म अभ्याससे जो भला बुरा कर्म-संस्कार उत्पन्न होता है, उसी को उन सबका स्वभाव कहते हैं। उस स्वभावके भीतर सत्त्व, रज, तम यह तीनों गुण रहते हैं। जिस गुणको ले करके जो देही जन्म ग्रहण करते हैं, उनकी श्रद्धा भी तदनुसार रूप दिखाती है। यह तीनों प्रकारकी श्रद्धा कैसी है उन्हें तुम सुन लो॥२॥ सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्वः स एव सः ॥३॥ अन्वयः। [ननू श्रद्धा सात्त्विक्येव तथापि रजस्तमोमिश्रितत्वेन सत्वस्य पियात् श्रद्धाया अपि त्रैविध्यं घटते इत्याह सत्त्वेति । ] हे भारत ! सर्वस्व
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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