SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पचदश अध्याय २०० अनुवाद। प्रयतमान योगीगण हो आत्माको देहमें अवस्थित देखते है, फिर 'प्रयतमान होनेसे भी अविशुद्धचित्त तथा मन्दमति मनुष्य गण इसको (आत्माको) देख नहीं सकते ॥११॥ व्याख्या। जीवका यह शरीर त्याग, शरीर ग्रहण, स्थिति और विषय भोग, यतन ( साधन ) करके योगीजन अपनेमें बाप रहकर अपनेको प्रत्यक्ष करते हैं। परन्तु संसारी अविवेकी जन (अकृतात्मा लोग) सिर पटक करके मरनेसे भी आत्माको देख नहीं सकते; अर्थात् जिनका चित्तशुद्ध न हुआ, इस कारण मति भी स्थिर न हुई, वह लोग शास्त्राभ्यासादि द्वारा यत्न चेष्टा करनेसे भी, उन सबकी अन्तदृष्टि नहीं खुलती इस करके, वह लोग सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्माका ज्यापार कुछ भी दर्शन करने नहीं पाते ॥ ११ ॥ यदादित्यगतं तेजी जगद्भासयतेऽखिलम् । यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ १२ ॥ अन्वयः। आदित्यगतं यत् तेजः अखिलं जगत् भासयते ( प्रकाशयति ), चन्द्रमसि यत् ( तेजोऽवभासकं वर्तते), अग्नौ च यत् ( तेजो वर्तते) तत् तेजः मामक (मदीयं ) विद्धि (जानीहि ) ॥ १२॥ . अनुवाद। आदित्यगत जो तेज अखिल जगत्को प्रकाश करता है, चन्द्रमें जो तेज रहता है, और अग्निमें भी जो तेज रहता है, वह तेज मेरा ही है जानना ॥१२॥ व्याख्या। साधक ! तुमसे (४ र्थ श्लोकमें ) वह जो ज्योतिप्रवाह बाहर होकरके जगत्को प्रकाश करता है, अहो! तुम जैसे विश्वव्यापक हो, देखो देखो, तुम्हारा वह महाप्रकाश भी तैसे विश्वव्यापी है। मिट्टी, वृक्ष, पत्थरोंके अस्वच्छताके हेतुसे वे सब तुम्हारी उस ज्योतिको खिला नहीं सकते; परन्तु तुम्हारी वह ज्योति, उन सबके भीतर बाहर ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ वर्तमान नहीं है।
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy