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________________ २०६ श्रीमद्भगवद्गीता मन शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध इन सब विषयका उपभोग किस 'प्रकारसे करता है ? जैसे बच्चके बालोंमें जटा; धीरे धीरे जटाका मैला निकाल लेनेसे जैसा बाल था तसा ही रहता है, मैला निकल जानेसे बालकी क्षति वा वृद्धि कुछ भी नहीं होती तुम्हारी भी वही दशा है। प्राकृतिक क्रियाको हटा देनेसे तुम जो निलिप्त वही निर्लिप्त रहोगे॥६॥ उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् । विमूढ़ा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ १० ॥ अन्वयः। उत्क्रामन्तं (देहाइ हान्तरं गच्छन्तं ) वा ( अथवा ) स्थितं ( देहे तिष्ठन्तं ) अपि भुजानं ( बिययान् उपलभमानं ) वा गुणान्वितं ( इन्द्रियादि युक्त) [ एवम्भूतमप्येनं जीवं ] विमूढाः न अनुपश्यन्ति, ज्ञानचक्षुष पश्यन्ति ॥ १० ॥ अनुवाद। देहसे देहान्तरमें जानेवाला, देहमें रहनेवाला, विषयभोगमें प्रवृत्त अथवा गुणान्वित ( इन्द्रियादियुक्त ) देहीको विमूढ़गणं देख नहीं सकते परन्तु ज्ञानचक्षुयुक्त मनुष्यगण ही देखते हैं ॥ १०॥ व्याख्या। यह जो गुणान्वित जीवका एक देहसे दूसरे देहमें गमन, देहमें स्थिति और विषयभोग है, विमूढगण ( भोगातुर लोग) उसे देख नहीं सकते। जिनकी ज्ञानचक्षुकी दृष्टि खुल गयी है, वे सब ही देखते हैं। इसका साक्षी तुम हो॥ १०॥ यतन्तो योगिनश्च नं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नंनं पश्यन्त्यचेतसः ॥ ११ ॥ अन्वयः। यतन्तः ( ध्यानादिभिः प्रयतमानाः ) योगिनः च एनं ( आत्मानं देहिनं ) आत्मनि (देहे ) अवस्थितं पश्यन्ति यतन्तः ( शास्त्राभ्यासादिभिर्यत्न कुर्वाणाः ) अपि अकृतात्मानः ( अविशुद्धचित्ताः) अचेतसः ( मन्दमतयः ) एनं न पश्यन्ति ॥११॥
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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