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________________ १४० . श्रीमद्भगवद्गीता प्रतीत होती है, अर्थात् यह सब ही असत् है। और वह जो सत्ताके बारेमें कहा गया है, वही इन सब परिणामियोंका आश्रय और स्वयं सत् अपरिणामी होनेसे उसको इन सबका ईश्वर (१८ : ६१ श्लोक) कहा गया है। वह सत् अपरिणामी ही इन परिणामियोंके जानने योग्य वस्तु है। फिर इन परिणामियोंके भीतर बाहर जो कुछ है, परिणामी लोग उसे आप ही आप कुछ नहीं जानते; परन्तु वह परमेश्वर इनके प्रत्येक अणु परमाणुओंका वेत्ता है, इसीलिये वह क्षेत्रज्ञ है। यह जो दृश्यमान जगत् दिखाई पड़ता है, इसके प्रत्येक भागको तुम भलीभांति देखकर, पहचान कर समझ लो, देखो इनमें तुम कौन हो। ऐसा करनेसे ही देखोगे कि, इनमें तुम एक भी नहीं हो। क्योंकि जो कुछ आता जाता है, वह चिरस्थायी नहीं है, वह असत् है। जो चिरस्थायी सत् है, हे अर्जुन ! वही तुम हो। इसलिये कहता हूँ कि, प्रत्येक शरीर ही भिन्न भिन्न क्षेत्र है; क्योंकि स्थूल दृष्टिसे उनको अलग अलग देखा जाता है। परन्तु एक महाकाश जिस प्रकार प्रत्येक स्थूल पदार्थके भीतर बाहर वर्तमान है, उसी प्रकार मैं "सत्ता” रूपसे इन सब असत् परिणामियों के भीतर बाहर वर्तमान हूँ। इसीलिये इन सब क्षेत्रोंका जो कुछ ज्ञान, अर्थात् जाननेका जो कुछ पदार्थ है उन्हें मैं जानता हूँ, इसलिये मैं क्षेत्रज्ञ हूं। यह जो क्षेत्र परिणामी और असत् , और यह जो मैं परमेश्वर अपरिणामी और सत हूँ, इन दोनोंका.जो ज्ञान है, हमारी सम्मतिमें यह ज्ञानही ज्ञान तत् क्षेत्रं यच्च याहक् च यद्विकारि यतश्च यत् । - स प यो यत्प्रभावश्च तत् समासेन मे शृणु ॥४॥. अन्वयः। तत् क्षेत्रं यत् च ( स्वरूपतो जड़दृश्यादिस्वभावः ) यादृक् च (यादृशञ्च इच्छादिधर्मकं ) यद्विकारि (यरिन्द्रियादिविकारैर्युक्त) यतश्च (प्रकृतिपुरुषसंयोगाद्भवति ) यत् ( यै प्रकारैः स्थावरजङ्गमादिभेदै मिन्नं ), स च क्षेत्रज्ञः यः यत्
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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