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________________ त्रयोदश अध्याय १३६ अन्नरससे उत्पन्न होकर अन्नरस से ही वृद्धि पाकर अन्नरूप पृथ्वीमें जो विलीन होता है, वही अन्नमय कोश, अर्थात् स्थूलशरीर है। प्राणादि पन्चवायु तथा वागादीन्द्रिय पञ्चकको प्राणमय कोश कहते हैं। ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक सम्मिलित मनको मनोमय कोश कहते हैं; उसी प्रकार ज्ञानेन्द्रिय पचक सम्मिलित बुद्धिको विज्ञानमय कोश कहते हैं। ये तीनों कोश सूक्ष्म शरीरके अन्तर्गत है। इसी प्रकार कारणशरीर गत अविद्या स्थित प्रियादिवृत्ति सहित जो मलिनसत्त्व है, वही श्रानन्दमय कोश है। - यह पाँचो कोशकी बात हुई। हमारा शरीर, हमारा प्राण, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा ज्ञान-यह सब आपही आप जाने जाते हैं। उसी प्रकार जैसे कनक कुण्डल गृहादिमें हमारा शब्दका प्रयोग होता है, मैं शब्द सूचित नहीं होता; वरन् वे सब मैं से भिन्न ही बोध होते हैं। इसी तरह पन्चकोशमें भी हमारा शब्द ही प्रयुक्त होता है। यह सब आत्मा नहीं है। तब आत्माका स्वरूप क्या है ? ना,-"सच्चिदानन्दस्वरूपः", अर्थात् आत्मा सत्=तीनों कालमें ही विद्यमान है, चित्=ज्ञानस्वरूप, एवं आनन्द = सुखस्वरूप। यह सच्चिदामन्दस्वरूप आत्मा ही क्षेत्रज्ञ है ॥२॥ क्षेत्रज्ञञ्चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रषु भारत । क्षेत्रज्ञत्रयोनिं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥३॥ अन्वयः। हे भारत ! सर्वक्षेत्रेषु मां च अपि क्षेत्रज्ञ विद्धि; क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः यत् ज्ञानं तत् ज्ञानं मम मतं ॥ ३ ॥ अनुवाद। हे भारत ! समुदय क्षेत्रमें हमें ही क्षेत्रज जानो; क्षेत्रक्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है; वही ज्ञान हमारा अभिमत है ॥ ३॥ व्याख्या। वह जो क्षेत्रके सम्बन्धमें कहा गया है, एक भस्माणुसे लेकर माया पर्य्यन्त सब ही परिणामी होनेसे इन सबकी नश्वरता
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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