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________________ १२४ श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। (यदि ) अभ्यासमें भी तुम अशक्त हो, तो मैं के (हमारा ) कर्म परायण हो जाओ। किस प्रकारसे मत्कर्म परायण होने होता है? मैं के अर्थमें अर्थात् मैं जो ब्रह्म हूँ, मैं का वाचक है प्रणव, प्रणवका अर्थ हूँ मैं; गुरूपदिष्ट रस्तेमें यथा यथा स्थानमें उस प्रणवको उच्चारण करते करते निश्वास-प्रश्वासका ग्रहण-त्याग करनेसे ही 'मैं' के अर्थमें कर्म करना होता है और वही कर्म तुमको सिद्धि अर्थात् प्राप्तिकी प्राप्ति लाभ करावेगा, अर्थात् तुम आप ही आप अपने को भूल करके जो 'तुम' खज लिये हो, यह तुम्हारे सजनेका भ्रम 'मिटाकर तुम्हारा पुनः आत्मत्व प्रतिष्ठा भी कग देगा (४र्थ अः २६वें श्लोककी व्याख्या देखो)॥१०॥ अर्थतदप्यशक्तोऽसि कत्तु मद्योगमाश्रितः । सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ ११ ॥ अन्वयः। अथ ( यदि ) एतत् अपि कत्तु "अशक्तः असि, ततः ( तहिं ) मद्योगं ( मदेकशरणं ) आश्रितः सन् यतात्मवान् ( यतचित्तः भूत्वा ) सर्वकर्मफलत्यागं कुरु ॥११॥ अनुवाद। इसमें भी यदि तुम अशक्त हो तो, मद्योग का आश्रय करके यतचित्त हो करके सर्वकर्मफल का त्याग कर दो ॥ ११॥ व्याख्या। ऊपरमें जो जो साधन कहा हुआ है, उन सबके सीतर यदि तुम एक भी न कर सको, तो हमारे योगका आश्रय कर लो। हमारा योग इस प्रकार है-ब्रह्मनाड़ी के बीचमें जो आकाश है, उस आकाशके मथनसे आदि अन्त शून्य एक प्रकारके शब्दकी उत्पत्ति होतो है; ऊंचे नीचे कम्पन वाले जो सुननेमें आता है उसको शब्द कहते हैं, और एक रंग कम्पन-शून्य अविच्छिन्न व्यंजन-रहित जो शब्द सुननेमें आता है उसीको नाद कहते हैं। उस नादके उदय होनेसे, वह नाद प्रोक्त आकाश-मथनके लिये परिश्रम दूर करा कर
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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