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________________ द्वादश अध्याय ११६ श्रद्धया उपेता: (युताः ) ये मां उपासते ( आराधयन्ति ), ते युक्ततमाः मे मनाः ( ममाभिमताः ) ॥२॥ अनुवाद। हममें मन समाहित कर, नित्ययुक होकरके परम श्रद्धा युक जो सक लोग मेरो उपासना करते हैं, मेरे मतमें वही युक्ततम हैं ॥२॥ व्याख्या। पुनः साधक निजबोधसे अपने प्रश्नकी मीमांसा माप ही श्राप करते हैं। गुरुवाक्यमें अटल विश्वाससे ( सर्वबाधाको अतिक्रम करने वाली शक्तिको दृढ़तासे ) मुझको सामनेमें रख करके, विश्वकोषका जो कुछ समस्त भूल जा करके, हममें मन फेंक करके, नित्य स्वरूप हममें युक्त (जैसे गंगा जलमें इन्दारा जल ) हो करके, मैं के समीपमें आय करके, जो मैं में मिल-मिश जाय; मेरे मतमें बही युक्ततम है ॥२॥ ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते । सर्वत्रगमचिन्त्यष कूटस्थमचलं ध्रुवम् ॥ ३ ॥ संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥ ४ ॥ अन्वयः । ये तु इन्द्रियग्रामं संनियम्य सर्वत्र समबुद्धयः ( सन्तः ) अनिद्देश्य (निर्देष्टुं अशक्यं ) अव्यक्त (रूपादिहीनं ) सर्वत्रग (सर्वव्यापिनं ) अचिन्त्यं कूटस्थं ( कूटे मायाप्रपञ्चे अधिष्ठानत्वेनावस्थितं ) अचलं ( स्पन्दनरहितं अतएव ) ध्र वं ( नित्यं ) अक्षरं पर्युपासते, सर्वभूतहिते रताः ते मामेव प्राप्नुवन्ति ॥३॥४॥ अनुवाद। और जो सब साधक इन्द्रिय समूहको सांयत करके सर्वत्र समबुद्धि सम्पन्न होकरके अनिद्देश्य, अचिन्त्य, सर्बत्रगत, अव्यक्त, अचल, ध्र व, कूटस्थ अक्षर की उपासना करते हैं, सर्वभूतोंके हितमें रत वही लोग मुझको प्राप्त होते हैं ॥३॥४॥ व्याख्या। 'अक्षर'-जो कभी क्षयको प्राप्त नहीं होते। 'अनिर्देश्य'-जिनका कभी किसीसे निरूपण किया नहीं जा सकता। 'अव्यक्त'-जो शब्दके अगोचर, अर्थात् शब्दसे जिनका थाह पाया
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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