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________________ द्वादशोऽध्यायः अर्जुन उवाच । एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥ १॥ अन्वयः। अर्जुनः उवाच । एवं ( सर्वकार्पणादिना ) सत्त्युक्ताः ( सद त्वन्निष्ठाः सन्तः ) ये मक्ताः त्वा ( विश्वरूपं ) पर्युपासते, येव अव्यक्त अक्षरं अपि (ब्रह्म) पथ्यं पासते, तेषां (उभयेषां मध्ये ) के योगवित्तमाः ( अतिशयेन योगविदः)? ॥१॥ अनुवाद। अर्जुन कहते है। इस प्रकार सतत युक होकर जो सब भक्तगण तुम्हारी उपासना करते हैं, और जो लोग अव्यक्त अक्षरकी उपासना करते हैं। इन दोनोंके भीतर अधिकसे अधिक योगविद् कौन हैं ॥१॥ व्याख्या। गुरु वाक्यमें अटल विश्वास करके जो पूर्वोक्त प्रकारसे सतत युक्त रहकर तुम्हारी उपासना करता है, और जो अक्षर अव्यक्त की उपासना करता है, इन दोनों में योगवित्तम (श्रेष्ठ) कौन है ? साधक देखते हैं, यह जो विश्वरूप दर्शन है इसमें तो "मैं" "तुम" ( महं-त्वं) एक नहीं हुआ। यही साधन अच्छा है, या जिसमें "मैं" "तुम" एक हो जाता है । बताइये ! दोनोंके मोतर श्रेष्ठ कौन है ?॥१॥ श्रीभगवानुवाच । मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥२॥ अन्धयः। मयि ( परमेश्वरे सर्वशत्वादिगुणविशिष्टे ) मन आवेश्य ( एकाग्र कृत्वा ) नित्ययुजाः (मदर्थकानुष्ठानादिना मन्निष्ठाः सन्तः ) परया (श्रेष्ठया)
SR No.032601
Book TitlePranav Gita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1998
Total Pages378
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size26 MB
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