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________________ द्वितीय अध्याय व्यापकतामें मिलनेके लिये गये तो अभ्यासके दोष करके, मायाकी व्यापकतामें आसक्ति दे करके, "हमारा" शब्दके अर्थ में जो जो सब खड़ा होता है, वही सबको लेकरके माया योगमें आ करके कृपामें फंस गए। यही "विषाद योग है"। इसलिये मायासे चक्षुमें जल श्राकर बाहरकी दृष्टि शक्ति आवरण हुई। जैसे बाह्य-दृष्टिका अवरोध हुआ, वैसेही अन्तर्लक्ष्यका पर्दा खुल गया, और रोमांच-करी अनुभवका उदय । वो अनुभव ही मधुसूदनका उक्ति है अर्थात् अपने प्रश्नका उत्तर निजबोधरूप प्रात्म-ज्ञानमें आपही आप अपनी मीमांसा करता है "मधु” कहते हैं, अति मिष्ठ द्रव्यको; जीवको संसार-भोग-वासना ही मिठी चीज है। उसी वासना-रूप मधुका जो सूदन ( विनाशक ) है, अर्थात् जो प्रभु जीवको संसार विपावसे मुक्त करते हैं, वही "मधुसूदन” (कूटस्थ तारकब्रह्म ) हैं। उनमें ज्ञान वैराग्यादि समस्त ऐश्वर्य ही सर्वदा विराजमान हैं; इसलिये वह भगवान है ॥१॥ श्रीभगवानुवाच। . कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् । अनाय॑जुष्टमस्वय॑मकीर्तिकर मर्जुन ॥२॥ अन्वयः। हे अर्जुन । विषमे ( एतादृश संकटे ) त्वा ( स्यां ) इदं अनाव्यंजुष्टं (भनार्यसेवितं ) अस्वयं अकीतिकरं कश्मल कुतः समुपस्थितम् ? ॥ २॥ अनुवाद । श्रीभगवान कहते हैं-अर्जुन ! एतादृश विपम-समयमें तुममें ये अनार्यसेषित अस्वर्गकर तथा अकीतिकर कश्मल केसे उपस्थित हो .ये ? ॥ २॥ व्याख्या। सम कहते हैं ऊंचे नीचे ( हिलने डोलने ) से विहीन अवस्थाको। "मैं-मेरा" ज्ञान न रहनेसे वासनाका लेशमात्र नहीं रहता। "हमही हम" रूप क्या जाने कैसे अस्तित्व-बोधक भाव रहता है मात्र। साधन-चतुष्टय-सिद्ध होकर ये अवस्था भोग करके
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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