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________________ श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीयोऽध्यायः । -:0 संजय उवाच । तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् । विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूनः ॥ १ ॥ अन्वयः। संजयः उवाच। मधुसूदनः तथा कृपया आषिष्टं अश्रुपूर्णाकुलेक्षणं विषोदन्तं तं ( अर्जुनं ) इदं वाक्यं उवाच ॥१॥ अनुवाद। संजय कहते हैं। मधुसूदनने तादृश कृपाविष्ट अश्रुपूर्णाकुलित-लोचन विषादग्रस्त अर्जुनसे यह बात कहा ॥१॥ व्याख्या। दृश्यमान परिणामी पंच महाभूतोंके ऊपर उठनेसे ही सम्यक् जय करना होता है, वह सम्यक जय करनेके पश्चात् जो दिव्य दृष्टिका प्रकाश होता है, उसीको संजय (सं=सम्यक् +जय) कहते हैं; और उस दिव्यदृष्टिमें प्रत्यक्ष करके जो अपरोक्षज्ञान उत्पन्न होता है, जिस ज्ञानके विरुद्धमें सन्देहका कारण पर्यन्त भी नहीं रहता, उस ज्ञानमें जो समझमें आता है, उसीको संजयकी उक्ति कहते हैं। "विष" कहते हैं जिसमें व्यापन-शक्ति है, आ-आसक्ति, ददान करना; व्याप्तिमें आसक्ति देनेका नाम "विषाद” है। जीव जिसके नाम-रूप दिया है उस मायामय विश्वमें जैसी व्यापकता है, जोव जिसको ब्रह्म कहता है उस ब्रह्म-शब्दके अर्थ में भी उसी प्रकारकी एक व्यापकता है। ब्रह्मकी व्यापकत्वमें आसक्ति देनेसे मायांश विलोप होकरके ब्रह्मत्व प्राप्ति करा देती है, और मायाके ( विश्वके ) व्यापकत्व में आसक्ति देनेसे शोचनामें पड़ना होता है। साधक ब्रह्मकी
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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