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________________ श्रीमद्भगवद्गीता समयमें स्थूल शरीरका कुछ ज्ञान रहता नहीं, अथच सूक्ष्मशरीरकी क्रिया जाग्रत अवस्थाके सदृश चलती रहती है। मृत्युके पश्चात् पितृलोग भी तैजस-आकार धारण कर छायाशून्य सूक्ष्म शरीरमें क्रिया फल भोगते रहते हैं, प्रत्यक्ष होता है। पितृ अवस्था और इस अनुभवकी अवस्था कार्य्यतः एक ही है, केवल स्थूल शरीरके पात न होनेके लिये थोडासा फरक रहता है मात्र । उस अनुभव अवस्थाका उदय बन्द हो जाता है, इस कारण पितृ-लोगोंका पतन और पिण्ड, उदक तथा क्रियाका लोप, कहा गया है ॥४१॥ दोषरेतैः कुलप्नानां वर्णसंकरकारकैः । उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधाश्च शाश्वताः ॥ ४२ ॥ अन्वयः। कुलघ्नानां एतैः वर्णसंकरकारकैः दोषः जातिधर्माः शाश्वताः कुलधाः च उत्सायन्ते (लुप्यन्ते ) ॥ ४२ ॥ अनुवाद। कुलनाश कोंके वर्णसंकर करनेवाले इन समस्त दोनों में जातिधर्म तथा सनातन कुलधर्म लुप्त होगा ॥ ४२ ॥ व्याख्या। वर्गसंकरके उत्पादक शारीरिक विकारसे शरीर काम लायक नहीं रहता। जिस जातिका जिस कुलका जो सनातन धर्म है, वह भी उस वर्णसंकर शरीरसे सम्पादन हो नहीं सकता, इसलिये उत्सन्न होता है ॥४२॥ उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनाईन । नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रम ॥ ४३ ॥ अन्वयः। हे जनाईन ! उत्सन्न कुलधर्मागां मनुष्याणां नियतं नरके वासः भवति इति अनुशुश्रम ( वयं श्रुतपन्तः ) ॥ ४३ ॥ अनुवाद। हे जनाईन ! जिन सब मनुष्यों का कुलधर्म नष्ट होता है, वे लोग नियत नरकमें बास करते है, ऐसा हमने सुना है॥४३॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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