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________________ ४८ श्रीमद्भगवद्गीता हैं। बाहरके अांख, कान, नाक आदिसे जो शब्दस्पर्शादि भोग होता है, वह भी विषय है; और सर्वद्वार संयम करके आत्ममुखमें जो रूप-रस-शब्दादि उपभोग किया जाता है, वह भी विषय है। प्रथम वाला वहिर्विषय है, इसलिये स्थूला दूसरा अन्तर्विषय है इसलिये सूक्ष्म है। वहि विषय-भोगसे विषयमें लपटना, और अन्तर्विषय-भोगसे विषय त्यागके लिये विषयसे अलग होना पड़ता है। यह स्थूल-सूक्ष्म विषय भोग सप्तदश कलासे ही होता है। दश इन्द्रिय, पंच प्राण, मन और बुद्धि यही सब सप्तदश कला हैं; वासना, वैराग्य प्रभृति जो कुछ वृत्तियां हैं, वह सप्तदश कलासे ही उत्पन्न होती हैं। यही समुदय "कुल" है। आत्म-युद्धमें ये समस्त क्षयको प्राप्त होती हैं। इन सबके प्रत्येकका एक एक गुण वा धर्म है, जैसे चक्षुका धर्म देखना, कानका धर्म सुनना, मनका धर्म संकल्प विकल्प करना इत्यादि। ये धर्म, शरीरके साथ ही साथ जन्म ले करके, शरीरान्त पर्य्यन्त सर्वकाल विद्यमान रहते हैं। इसलिये सनातन अर्थात् ( सर्वके ) चिरन्तन। उस कुलक्षयके होनेसे, ये सनातन धर्म नष्ट हो जाता है, जैसे चक्षु निस्तेज होनेसे अच्छा दर्शन होता नहीं, कानके निस्तेज होनेसे सुनाता नहीं, मन दुर्बल होनेसे संकल्प-विकल्प की लहर घट जाती है इत्यादि। इस प्रकार क्षय अर्थात् नष्ट होने पर भी जो कुछ अवशिष्ट रहेगा, वह सब अधर्मसे अभिभूत होवेगा, अर्थात् समस्त उलट-पलट हो जावेगा, जैसे धान कहनेमें कान सुनना, पित्तरोगग्रस्त रोगियोंके आंखसे सुफेद रंगको जरद दिखाई पड़ना, इत्यादि ॥ ३ ॥ अधर्माभिभवात् कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः। .. स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥४०॥ अन्वयः। हे कृष्ण ! अधर्माभिभवात् कुलस्त्रियः प्रदुष्यन्ति; हे वार्ष्णेय ! स्त्रीषु दुष्टासु ( सतीषु ) वर्णसंकरः जायते ॥ ४० ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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