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________________ ४६ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद । यदि लोभके मारे चेतना गँवाकर धार्तराष्ट्रगण कुलक्षयकृत दोप और मित्रद्रोहके पाप देख नहीं रहे हैं, किन्तु हे जनाईन! हम लोग कुलक्षयकृत दोष को प्रत्यक्ष करके इस पाप कार्यसे निवृत्त क्यों न होवे? ३७ ॥ ३८ ॥ व्याख्या। ६ष्ठ अध्यायके ५म श्लोकमें है, "आत्मैव ह्यात्मनौ बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः' अर्थात् श्राप ही अपने बन्धु श्राप ही अपने शत्र हैं। इस शरीर रूपी राज्यमें मनुष्य जब वासनाधीन रहते हैं, तब वह पापही कभी भोगी कामी वा चोर इस प्रकार नाना साजमें सजते रहते हैं। इस समयमें भले भावको उनका मन छूता ही नहीं, मनमें भला भाव अानेसे भी, असह्यकर समझ करके उस भावको मन से भगा देते हैं। फिर उसी मनुष्यका जब कोई सत् काम काज वा सत् चिन्ता करने वाला समय आ जाता है, तब मन्द भावको भी उनका मन छूता नहीं। मन्द भाव मनमें उठनेसे उसको शत्रु समझ करके मनसे दूर कर देते हैं। फिर आप ही आप अपने मनको बुरे भावसे अलग होते, और भले काममें लगे रहनेका उपदेश करते हैं; आपही अपने उपदेष्टा, आपही अपने शिष्य होते हैं। मनुष्य मात्र को यह अवस्था मालूम है। साधनामें भी ऐसा ही है। एक साधक ही, एक बार धृतराष्ट्र होते हैं, एक बार दुर्योधनादि होते हैं, फिर भीष्म, द्रोण, कर्ण प्रभृति भी सज करके दर्शन देते हैं, वासनाके वशवत्ती होकर मनमें जब जो भाव उठता है, तब वह आकार ही धर लेते हैं। फिर जब वासना क्षय करनेका समय आता है वा चेष्टा करते हैं, तब भी मनमें जो जो भाव उठता रहता है, उसी उसी भावके अनुसार अपनेको उसी भावका भावुक श्राकारसे गढ़ लेते हैं। उसके फलसे कभी अपने ही कर्ता कभी उपदेष्टा, कभी पात्मज्योतिके पूर्ण विकाशमें पड़ करके कूटस्थचैतन्यमें मिलके गुरु बन जाते हैं । पुनश्च कूटस्थसे उतर पा करके जीव सजके अर्जुन बन करके प्रश्न करते रहते हैं। बात यह है कि, एक ही साधक साधन क्रममें जैसी जैसी अवस्थामें
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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