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________________ प्रथम अध्याय ४१ किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगेर्जीवितेन वा। येषामर्थे कांक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥३२॥ त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च । श्राचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥३३॥ मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिस्तथा। एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन ॥३४॥ अन्वयः। हे गोविन्द ! न: ( अस्माकम् ) राउयेन किं (किं प्रयोजनं ), भोगैः “जीवितेन वा किं? येषां अर्थे नः ( अस्माकम् ) राज्यं भोगाः सुखानि च कांक्षितं, ते इमे आचार्याः पितरः पुत्राः तथा एव च पितामहाः मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः तथा सम्बन्धिनः प्राणान् धनानि च त्यक्त्वा (प्राणधनादित्यागं अंगीकृत्य युद्धार्थे ) युद्ध अवस्थिताः। हे मधुसूदन ! नतः अपि ( अस्मान् मारयतः अपि ) एतान् हन्तुम् न इच्छामि ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ अनुवाद। हे गोविन्द ! राज्यसे अस्मदादिका क्या प्रयोजन ? भोग सुखसे भी क्या प्रयोजन ? जीवनसे भी प्रयोजन क्या ? जिन लोगोंके लिये हम सबको राज्य, भोग और सुखकी प्रार्थना है, वही सब तो वह आचार्यगण, पितृगण, पुत्रगण और ऐसे कि पितामहगण, श्वशुरगण, पौत्रगण, श्यालकगण, तथा कुटुम्बगण धन और प्राण की आशा छोड़ करके मरने मारनेके लिये इस युद्ध में उपस्थित हुये हैं । हे मधुसूदन ! हम लोग इन लोगों द्वारा बध होनेसे भी इन लोगों का विनाश करनेकी मैं इच्छा नहीं करता ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ व्याख्या। "गोविन्द”। -गो शब्दमें पृथिवी; इस पृथिवीको जो पालन करता है, वही गोविन्द हैं। साधक अब देखते हैं, कि इस शरीर रूप क्षेत्रमें साधककी जो कुछ अन्तःकरणवृत्ति है, समस्त ही कूटस्थचैतन्य द्वारा प्रकाश पा रही है; वह अच्छी तरह समझते हैं कि किसीके ऊपर उनका अपना कुछ कर्तृत्व नहों, जो कुछ है वह समस्त चेतना-शक्तिसे ही होता है; तथापि मायाके विपाकमें पड़ करके "अपने पराये” का भ्रम उनका नहीं मिटता। इसलिये साधक ज्ञानके
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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