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________________ श्रीमद्भगवद्गीता न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे। न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥३१॥ अन्वयः। हे कृष्ण ! आहवे ( युद्ध ) स्वजनं हत्वा श्रेयः (कल्याणं ) न च अनुपश्यामि विजयं च न कांक्षे राज्यं सुखानि च न ( कांक्षे ) ॥ ३१॥ अनुवाद। हे कृष्ण। युद्ध करके अपने स्वजनके मारनेसे मैं तो कोई शुभफल नहीं देखता; मैं विजय नहीं चाहता, राज्य नहीं चाहता, सुख भी नहीं चाहता ॥ ३१॥ ___ व्याख्या। इन सब श्लोकोंमें “कृष्ण" शब्दका व्यवहार होनेसे समयोचित यथार्थ भाव प्रकाश हुआ है। कृष्ण कूटस्थचैतन्य हैं। "कृषि भू वाचकः शब्दो णश्च निवृत्ति वाचकः। तयोरैक्यं परब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते"। कृषि =कर्षणे, भूः वाचक शब्द; ण= निवृत्तिवाचक शब्द, मुक्ति इच्छा न रहनेसे भी जो महापुरुष खींच ला करके निर्वाणको प्राप्त करा देते हैं, वहीं कृष्ण हैं। साधकके मनमें विषयवासना प्रबल होनेसे मन चंचल हो करके नीचेकी तरफ उतरना चाहता है, शरीर भी शिथिल होता रहता है, किन्तु कूटस्थका वही मन मतवाला करने वाली मोहिनी रूप उसको खींच रखती है, उतरनेकी इच्छा होनेसे भी मानो उतरने नहीं देती। साधककी यह अवस्था ठीक सर्पका छुछुन्दरी पकड़नेके सदृश है, अगरच छोड़दे तो अन्धा हो, अर्थात् मन मतवाला वह मोहिनी रूप और देखने न पाता; यदि निगल जावे ( उस ज्योतिको यदि अपने अन्तःकरणमें रख ले) तो ऐसा होनेसे मर जावे, अर्थात् उनकी वह वासना समूह नष्ट हो जावे। अब उनको उभय संकट आ पहुंचा। इसलिये कहते हैं कि, हे कृष्ण ! इस समरमें अर्थात् प्राणायाम क्रिया द्वारा इस वृत्ति समूहको नष्ट करनेसे किसी प्रकार कल्याण दिखाई नहीं देता ( क्योंकि शान्तिके बदले में केवल अशान्ति ही आती है ); विजय मैं नहीं चाहता, राज्य सुख भी नहीं चाहता। "विजय" =संयम; "राज्यं सुखानिच" =योगसिद्धि ॥३१॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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