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________________ १४ श्रीतजपवद्गीला पाण्डमे संज्यके साथ विषय भोग परित्याग कर एकमात्र ,ईश्वर की यामधमा मान दिया था। यह निर्मल बुद्धि भी जीवका बन्धन है, इसलिये इसको लय करनेके लिये साधक को थोड़ा श्रासक्ति का प्रयोग करना पड़ता है; जैसे उस आसक्ति का उदय होना, वैसे बुद्धि का भी ळय पाना। माद्रीमें आसक्त होनेके कारण पाण्डु की मृत्यु होने का यही तात्पर्य है )। (२) भीष्म आभास चैतन्य वा 'अस्मिता। अविद्या जनित अहंकार। (३) कर्ण = कर्त्तव्य कर्म वा राग। (४) कृप- कल्पना वा अविद्या । (५) अश्वत्थामा = रुद्र, यम, काम और क्रोध, इन चारों शक्तियों का एकत्र समावेश वा कर्मफल । एकके कर्मफल द्वारा दो तीन पुरुष पर्यन्त भोग भोगना पड़ता है; विशेषतः पितामह का दोष-गुण पौत्र पर उतरता है। अश्वत्थामा द्वारा परीक्षितके प्राण नाश की चेष्टा का भावार्थ भी यही है । (६) विकर्ण =अकर्त्तव्य कर्म वा द्वष। (७) सौमदत्ति (भूरिश्रवाभूरि श्रवति यः सः )=कर्म वा संसार । (८) जयद्रथ =अभिनिवेश वा मृत्युभय। ..."अविद्यास्मिता राग द्वषाभिनिवेशाः क्लेशाः।" इति पातञ्जल। - (६) अन्ये च बहवः शूराः शल्य कृतवर्मादि । शल्य = कण्टक वा शेल, जिसके रहनेसे क्रमान्वय क्लेश भोगना ही पड़ता है। कर्मसंस्कार अच्छा चाहे बुरा हो, वह जीवके संसार वन्धन का कारण है। इसलिये शल्य जीवका संस्कारज कर्म है। क्रियायोग कर अन्तमें यह आकाश तत्वमें लय होते हैं इसलिये, महाभारतमें युधिष्ठिर द्वारा शल्य बधकी बात प्रकट हुई है। कृतवर्मा-शरीर के प्रति मोह, शरीर की रक्षा करने की प्रवृत्ति। "युद्धविशारदा"-वह सब वृत्तियां सकर्म की सिद्धिके प्रक्षों कण्टक स्वरूप होनेसे जीवको संसार मार्गमें RAM
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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