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________________ 404 श्रीमद्भगवद्गीता __ यह जो अर्पणकी बात कही गयी है, वह भीतरको बात है; अन्तरसाधनाका फल है / इस अपर्णमें अधिकारी होनेके लिये बाह्य-साधना का प्रयोजन है। बाह्य-साधनासे मनका मैल साफ करके, मनको कृपणता दूर न कर सकनेसे, अन्तर-साधनाका अधिकार नहीं आता। इसलिये इस श्लोकका बाह्य-भाव प्रकाश करके बाह्य-साधनाका विषय कहा जाता है। मनुष्य जब जीव जगत्में प्रथम प्रवेश करता है, तब उसको दयाके आधार ममताका उत्स स्वरूप दो जीवित इष्ट देवता मिलते हैं। एक माता है और एक पिता। इन दोनों देवतोंके शरीर, मन, धन, और प्राणके सहारासे उसका वही विवश, असक्त, शिशु शरीर धीरे धीरे बढ़ता हुआ मनुष्य होता है। उन इष्ट देवतोंने अपना तन, मन, धन देकर उसको इतना बड़ा किया; कुसंग दोष तथा दुष्कियाके फल से यदि मानव उन्हों दोनों जीवित देवतोंकी उपासना अपना शरीरमन-धन और प्राण देकर न कर सके, तो उसका दूसरा इष्ट देवता कहो, याग-यज्ञ कहो, और चाहे योग-समाधि ही कहो, कोई भी अच्छा फल नहीं दे सकता। क्योंकि, वह मनुष्य मनमें मन और प्राणमें प्राण मिलाने नहीं सीखा। माता पिताके ऊपर जिसको भक्तिश्रद्धा मन प्राणसे नहीं होती है, किसी पारमार्थिक कार्यमें उसका अधिकार नहीं होता। कारण कि, जगत्की जो कुछ शिक्षा है, उन निःस्वार्थ दोनों सुहृत्से प्राप्त हो करके भी जो मनुष्य उन दोनों के ऊपर अपव्यवहार करता है, उसमें मनुष्यत्व नहीं रहता। जिसमें मनुष्यत्व नहीं है वह मनोधर्म नहीं समझता है। जो मनोधर्म नहीं समझता है, उसमें "मैं" समझनेका शक्ति नहीं रहता; क्योंकि, “मैं" भी पिता माता स्वरूपसे जगतूका पालन कर्ता हूँ; इसलिये, यहींसे मक्तिका प्रारम्भ होना प्रयोजन है। परन्तु जिस भक्तिमान श्रद्धावान कृतज्ञ पुरुषका उन दोनों इष्ट देवतोंके ऊपर इष्ट-देवता-बुद्धि रहती
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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