SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवम अध्याय 403 से उसी आकार लेकर उसी गुणमें गुणी होकर जन्म लेके पुनः संसार की लीलामें नाचना पड़ता है। यह बात निश्चय है। तैसे और भी एक निश्चय है कि यदि तुम ब्रह्मनाड़ीके भीतर भीतर उठ जाकर चित्त भेद करके “मैं” में जा पड़ो, और उस समय शरीरको त्याग करो तो फिर तुमको इस मर्त्यलोकमें आने न पड़ेगा। तुम "मैं" हो जाओगे // 25 // पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति / तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः // 26 // अन्वयः। यो मे भक्त्या पत्रं पुष्पं फलं तोयं प्रयच्छति ( ददाति); अहं प्रयतात्मनः ( शुद्धबुद्धः) भक्त्युपहतं (भक्तिपूर्वकं प्रदत्त) तत् ( पत्रादिकं ) अश्नामि (गृह्णामि ) // 26 // अनुवाद। मुझको जो कोई भक्तिके साथ पत्र, पुष्प, फल, जल देता है, उस शुद्धबुद्धि सम्पन्न साधकके भक्तिसे दिया हुआ उस पत्रादि मैं ग्रहण करता हूँ // 26 // . व्याख्या। 'पत्र” = वेद। पत्रसे छाया होती है, जिस छायेमें खड़ा होनेसे उष्णताकी ज्वाला-यन्त्रणाकी शान्ति होती है; तैसे वेदसे ज्ञानोत्पत्ति होती है, जिस ज्ञान करके भव-यन्त्रणासे अव्याहति मिल जाता है। इसलिये वेद संसार वृक्षका पत्र है। "पुष्प" =गुरूपदेश। वृक्षका सर्वोत्कृष्ट अंश फूल है; इस शरीर धारणका सर्वोत्कृष्ट अंश भी तैसे गुरूपदेश है, जिससे सन्ताप नष्ट और आत्मप्रीतिका उद्भव होता है। “फल' = गुरूपदेशसे कृतित्व लाभ करना। "जल' =गुरूपदेश ग्रहण करनेवाली शक्ति। इस शक्तिसे ही उस पत्र, पुष्प, फलका परिपूर्ग पुष्टि साधन होता है। गुरुवाक्यमें अटल विश्वास करके जो पुण्यवान प्रोक्त पत्र, पुष्प, फल और जल “मैं” में अर्पण करता है-प्रदान करता है, उसका वह अर्पण 'मैं' को ग्रहण न करा करके छोड़ता नहीं।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy