SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय लेकिन कोई भी स्थायी नहीं होता। परन्तु वैज्ञानिक ताडितकोषमें तड़ित्प्रवाहके दोनों मुख युक्त कर देनेसे जैसे दोनों प्रवाहोंके भीतर एक अभिभूत और दूसरा प्रक्लतर होकर वृत्ताकारसे अखण्ड स्रोतमें बहा करता है, वैसेही यदि अन्तःकरणकी इन दोनों वृत्तियोंको किसी प्रकारसे क्रिया विशेष द्वारा ( यह क्रिया गुरु मुखसे जानना चाहिये ) युक्त कर दिया जाय तो पहिलो वृत्ति ( विषयाभिमुखी) अभिभूत और दूसरी (आत्माभिमुखी) प्रबलतर होकर निरन्तर आत्माकी अोर प्रवाहित होती रहती है; यही युक्तावस्था वा योगस्थ होकर कर्मावस्था है। यह अवस्था ऊर्द्धगतिमें लाकर भूत और भविष्यत् नामक कालविभागको दूर करके केवल वर्तमानको ही विद्यमान रखती है और इस प्रकार त्रिकालज्ञ बना देती है। यही चरम निवृत्तिका प्रथम सोपान है। “समवेता युयुत्सव" धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्रही योगमार्ग है; युद्ध करनेकी इच्छा होनेसे ही इस स्थानमें समवेत ( सम्मिलित ) होना पड़ता है। अर्थात् साधकको संसारभ्रम आत्मज्ञानमें लय करना हो तो इस स्थानमें आना पड़ता है; यहाँ आनेसे साधकको देख पड़ेगा कि बहुतसा पुखीकृत संस्कार फर्मानुसार आकर उनपर आक्रमण करता है और लक्ष्यभ्रष्ट करके बहुत दूर फेक देता है; पुनश्च वैसेही इकट्ठा हुआ दूसरे प्रकारका संस्कार पाकर मनमें घृति, उत्साहादि शक्ति उत्पन्न करके उनको पुनः लक्ष्यकी ओर भेजता है। प्रथम संस्कार निचय विषयसंसर्ग-जन्य और दूसरा सत्संसर्गजन्य है। मन विकारग्रस्त होनेसे ही विषयमें आसक्त होता है; और विचारयुक्त होनेसे ही सद्वस्तु ग्रहण करनेमें समर्थ होता है। अतएव पहिला मानसिक विकारका फल है, इसलिये "मामकाः" और दूसरा मानसिक विचारका (वि=विगत, चारचलना फिरना ) अर्थात् ज्ञानका फल है, इसलिये 'पाण्डवाः'। मनका
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy