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________________ श्रीमद्भगवद्गीता होती है, "संगांत् संजायते कामः"। इसलिये कहता हूँ कि, अन्त:करणका जो प्रवाह केवल विषयकी तरफ दौड़ता है, उसीको मनोवृत्ति जानना। यह प्रवाह, स्थान विशेषमें, दिक्भेद करके भिन्न भिन्न भावसे तरंगाायत है। उस एक एक तरंगको एक एक वृत्ति कहते है। वह जो विषयामिमुखा स्रोतका विभन्न अंगिमा है, वही "मामकाः" अर्थात् कामनासमूह है। यह सब ध्तराष्ट्क [ मनके ] शतपुत्र वा दुर्योधनादि शत भाई हैं। इन सबका प्रवत्त संसार स्खी वृत्ति वा अकर्त्तव्यनिचय ] कहते हैं; यथा काम, काध, लोभ मद, मत्सरता, निद्रा, तन्द्रा, आलस्य, राग, द्वेष, स्नेह, ममता इत्यादि। बुद्धि सामने जिसको देखती है उसीको निश्चय कर लेती है अर्थात् नाप लेतो है, आत्माही इसका नापनेवाला मानदण्ड है और नापनेसे वस्तु दो अंशों में विभक्त हुई है। प्रथम सत्-( "तदर्थीय कर्म" परिणामी होनेसे भी सत्में पहुँचा देनेके सबबसे इसीके अन्तर्गत ) जो नित्य और अपरिणामी है, और दूसरा असत्-जो अनित्य और परिणामी है। आत्माकी तुलनामें सत् और असत्रूपसे क्तुविभाग करनेको वस्तुविचार कहा जाता है। इस वस्तुविचारमें श्रात्मा मानदण्ड होनेसे बुद्धिवृत्ति अतीव सूक्ष्म भावसे तथा निरवच्छिन्न रूपसे, आत्माकी ओर प्रवाहित रहती है, यहो अन्तःकरणका द्वितीय प्रवाह है। यह भी भूतसमूहके संयोगसे भिन्न भिन्न भावोंमें तरंगायित . है। श्रात्माभिमुखी प्रवाहकी विभिन्नभंगिमा ही "पाण्डवाः” (पण्डा इति ज्ञाने ) अर्थात् कर्त्तव्यनिचय है। इन सभोंको निवृत्ति (असंसारमुखी वृत्ति ) कहते हैं; यथा विवेक, विचार, वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा, समाधान, मुमुक्षुता इत्यादि । 7. मनुष्य में सदाही ये दोनों प्रवाह क्रियाशील रहते हैं। उसके फलस्वरूप विभिन्न विषयसंसर्गसे चाहे पहिला, या दूसरा-या दोनों ही मिश्ररूपसे अदल बदल कर कुछ कालके लिये प्रबलतर हो उठते हैं;
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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