SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवम अध्याय 363 यजुः-य+ज+ः / यं-स्वरूपे, जं-जायमाने, उ-स्थितिका स्थान है। साधन-समयमें योनि मध्यगत ज्योतिर्मय जो स्वरूप दर्शनमें आता है, जिसको आत्मदर्शन कहते हैं; जिससे-मैं देह नहीं हूँ, मेरी देह भी नहीं है, इन दोनोंसे मैं अत्यन्त भिन्न हूं, अथच मैं कुछ न करके भी देहको धारण कर रहा हूँ, स्पष्टतः समझा जाता है; वही साक्षात् ज्ञान स्वरूप यजु भी 'मैं हूँ। दक्षिण दिशामें देखा जाता है, इसलिये साधकगण इसको दक्षिण आम्ना कहते हैं // 17 // गतिर्भर्त्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् / / प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् // 18 // अन्वयः। (अहमेव ) गतिः, भत्ता, प्रभुः, साक्षी, निवासः, शरणं, सुहृत्, प्रभवः, प्रलयः, स्थानं ( आधारः) निधानं ( लयस्थानं ), अव्ययं, बीज // 18 // अनुवाद। मैं ही-गति, भत्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सुहत, प्रभव , प्रलय, स्थान, निधान और अव्यय बीज हूँ / / 18 // व्याख्या। गति-परिणामको कहते हैं। इस जगतकी 'गति' अर्थात् परिणामस्थल 'मैं' हूँ। 'भर्ता'-जो भरण करे वा जो पोषण करे; पालन कर्ता है। यह जगत् अहंकारसे पालित है; वह अहंकार 'मैं हूँ। 'प्रभु' स्वामी। इस जगतका स्वामी 'मैं हूँ। "साक्षी" देखने वाला है। इस जगतका द्रष्टा 'मैं हूं। "निवास” शब्दमें घर मकान है। जिसके भीतर रहा जाता है वही मकान है। यह जगत् मेरे भीतर रहता है, इसलिये 'मैं' जगत् का निवास हूं। 'शरण'-वही है जिसके पास जानेसे विपदसे रक्षा होता है / जगतभोग ही अर्थात् जन्म-मरण ही जीवका विपद है। जो जाता है -वही जगत है। इस जानेका भ्रम जब "परं" दृष्टिसे मिट जाता है, तबही चिरन्तनत्व प्रकाश पाता है। इस चिरन्तनमें विच्छेद नहीं है, चञ्चलता नहीं है इसलिये चिरन्तन स्वपद है, और स्वपदका विपरीत
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy