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________________ 392 श्रीमद्भगवद्गीता लवणाम्बु "मै" बिना और कुछ नहीं है। इसलिये मैं वेद्य अर्थात् जाननेका वस्तु हूँ। “पवित्र"। -ग्नानिशून्यं; अर्थात विकारी माया जहाँ विकार लेकर कोई नाम-रूपका खेल खेलने नहीं सकता, ऐसा मैं हूं। ___ "ॐकारः" / अर्थात् जिसको उच्चारण करना हो तो अति सूक्ष्मसे खींचकर अति स्थूल दिखलाकर पुनः उसी अति सूक्ष्म में फेंककर नेरन्तर्य रक्षा करके देखना होता है; वही प्रणव मैं हूँ। (साधक ! इसे अच्छी तरह प्रणिधान करके समझ लेवेंगे)। ___ "ऋक् साम यजुरेव च” / (१)-ऋक् = पूर्व आम्ना; (2) साम - पश्चिम आम्ना; (3) यजुः = दक्षिण आम्ना है। ___ ऋक्-'ऋ' अर्थमें पावन, 'क' अर्थमें सृष्टिकर्ता ब्रह्मा है / सृष्टिकद्रूप ब्रह्माको जो पावन (पवित्र ) करता है, वही ऋक् अर्थात वेद है। वेद = विद्+घन , विद् धातुका अर्थ ज्ञान है / स्थूल शरीरधारी मनुष्योंमें सब कोई ज्ञान द्वारा मुक्ति लाभ करते हैं। विचारसे ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। कर्मका अर्थ लक्ष्य कर चलनेका नाम ही विचार है। इसलिये ऋक्-कर्मकाण्डप्रधान, उपासनामय, पूर्व गति वा सृष्टि-आडम्बर है। इसका बीज अहंकार है इसलिये “मैं” हूं। ___साम-स+आ+म। स्=सूक्ष्मश्वास, आ आसक्ति, म= मणि, सूक्ष्मश्वासमें आसक्तिं देके (क्रिया गुरूपदेशगम्य ) श्वास स्थिर हो जानेके पश्चात स्वच्छ आवरणके भीतरसे हीराके जल सरीखे जो ज्योति प्रकाशित होती है। उस ज्योतिमें "मैं" और "मेरे" इन दोनों का भेद समझा देता है, साधक लोग जिसको ज्ञानालोक कहते हैं,जिस आलोककी शिखा देखनेकी चेष्टा करनेसे सर्वदा पश्चिममुखी है, दिखाई देता है;-वही "साम" है। "हिरण्मयेन कोषेन सत्यस्यापिहितं मुखं। तच्छुभ्रज्योतिषां ज्योतिः तद् यदात्मविदो विदुः" इति श्रुतिः / वह ज्योतिही 'मैं' हूँ, अतएव मैं साम हूँ।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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