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________________ नवम अध्याय 387 में, जलांश जलके दरवाजे में, जो कुछ असार वंश अपान वायु फेंक देता है। पचकर जो एकदम सार होकर खड़ा हुमा, जिसको किसी प्रकारसे अग्नि और क्षय नहीं कर सकी, उसीका नाम अमृत हुमा / बही अमृत मेरुदण्डको आश्रय करके वायुके सहारासे शरीरके प्रत्येक अणुके संयोग स्थलमें उन सबका क्षयांश आपूरण करके सहस्रारके मूलत्रिकोणमें उठ पड़ा। उस त्रिकोणमें तीन मुख हैं। एकमुख ईड़ा नाड़ीमें, एकमुख पिङ्गलामें, और एकमुख सुषुम्नामें मिला है। ईड़ा नाड़ीसे जो धारा शरीरमें घुमा फिरा करता है उसीसे शरीरकी पुष्टि होती है। (साधक देखेंगे कि जब उनका बाम नासिकामें श्वास बहेगा, तब उनको क्षुधा नहीं रहेगी) और जो धारा सुषुम्ना मार्गमें सञ्चारण करती है उससे साधकके ज्ञानकी वृद्धि होती है। और जो धारा पिङ्गलामें बहती रहती है उस धाराको सूर्यरूपिणी महामाया खा जाती है। (साधक देखेंगे, जब उनके दक्षिण नासामें श्वास बहेगा, तब उनको क्षुत्बोध होवेगा, क्योंकि इस सुधाकी अपक्षयमें धापूरणका प्रयोजन होगा. अर्थात् खाद्य द्रव्य शरीरमें देने का प्रयोजन होगा,-खाद्य द्रव्यका प्रयोजन समझाय देनेको ही क्षुधा कहते हैं)। साधक गुरूपदिष्ट क्रम अनुसार जिह्वाको गलगहर के भीतर प्रवेश कराकर ऊर्ध्वमुखमें नासारन्ध्रकी पश्चिम भोर भिड़ाकर श्माका स्थान अतिक्रम करके बायें तरफ मुका देनेसे ही सुधाकूप अर्थात् ब्रह्मरन्ध्रको पावेंगे। उस स्थानसे होकर वह अमृत पिङ्गलामें जाती है। रसना पिंगलाका द्वार अवरूद्ध करनेसे, जिलाकी अग्रभागको दांतसे दबानेसे जो योनिस्थान देखा जाता है, उस योनिस्थानमें उस सुधा। कूपस्थ लिङ्गका संयोग होकर सुधाक्षरण-प्रवाह बहता रहता है। वह सुधा जिह्वाको आश्रय करके जठरमें आकर वैश्वानर अग्निमें पड़ता है। वैश्वानर और उसको पचन नहीं कर सकता, अथच वह सुधा वैश्वानरको तृप्ति देकर मेरुदण्डको आश्रय करके, तथा पुनः समस्त
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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