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________________ 386 / श्रीमद्भगद्गीता अज्ञानताका शेष हुआ तत्क्षणात् स्वस्वरूपमें अवस्थान हुआ। इस स्वस्वरूपमें अवस्थान और ज्ञानाग्निमें अज्ञानताकी आहुति, एक ही बात है। अब समझ लो, साधक ! एकत्व और पृथक्त्व क्या है ? // 15 // अहं ऋतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम / मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् // 16 // अन्वयः। अहं क्रतुः, अहं यज्ञः, अहं स्वधा, अहं औपध, अहं मन्त्रः, अहं एष आज्यं, अहं अग्निः , अहं हुतम् // 16 // अनुवाद। मैंही ऋतु मैंही यज्ञ मैंहो स्वधा, मैंही औषध, मैंहो मन्त्र, मैंही आज्य, मैंही अग्नि, मैंही हवन ( होम ) हूँ / / 16 // व्याख्या। द्वैत दोका नाम है, और अद्वत एकका नाम है / यह द्वतावत विवर्जित "मैं" हूँ। अब साधक ! देखो, तुममें द्वत भी नहीं है, अद्वैत भी नहीं है, क्योंकि तुम "मैं” हो चुके हो। चौदह भुवन शब्दके भीतर जो कुछ है, वहीं सब 'मैं' हूँ। मैं क्या हूँ ? ' “अहं क्रतुः"। क्रतु कहते हैं वेदविहित क्रियाको, अर्थात् ज्ञानके द्वारा जो कुछ क्रिया किया जाता है वही "मैं" हूँ। क्रतु-सोमरससाध्य याग * है “सोम” कहते हैं चन्द्रमाको; इस चन्द्रमासे जिस सुधा का क्षरण होता है वही पुष्टि अर्थात् अमृत है। इस अमृतसे जगत्में जो कुछ दर्शनीय है, उसीका पुष्टि साधन होता है, (८म अः४र्थ श्लोक 'अधियज्ञ” देखो)। जब शरीरके भीतर कोई कुछ उपादान अर्थात् खाद्य दिया जाता है, वही खाद्य पेटके भीतर जानेसे जठराग्नि के द्वारा उसका पचन होता है / पश्चात् सीठी समूह सीठीके दरवाजे * “सोमधारा क्षरेत् या तु ब्रह्मरन्ध्रात् वरानने / पौत्वानन्दमयस्ता यः सः एव मधसाधकः / / आगमसार।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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