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________________ श्रीमद्भगवद्गीता जो विषयसमूह शरीरके भीतर लिया जाता है मन ही उसका भोग करने वाला है, इसलिये मनको क हा जाता है। धृतराष्ट्र भी अन्ध हैं। "धृतराष्ट्र उवाज" वचनका अर्थ १म अध्यायके दूसरे और २१वें श्लोककी व्यापार _ "धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र" इस शरीरका नाम क्षेत्र है। सत्व, रज, तम तीन गुणोंके क्रियाविभाग करके यह शरीर तीन अंशोंमें विभक्त है। दशों इन्द्रियां (कर्ण, त्वक्, चक्षु, जिला, नासिफल को पांच ज्ञानेन्द्रियाँ; और वाक , पाणि, पाद, पायु, उपस्थ ये पांच कर्मेन्द्रियां) इसका प्रथम अंश हैं; पीठकी रीढ़को ( मेरुदण्डको) आश्रय करके जो सुषुम्ना नाड़ो मूलाधारसे सहस्रार पर्यन्त विस्तृत है, वह सुकुम्मासंलग्न षटचक्र द्वितीय अंश है, और माझाचकके ऊपरसे सहसार पर्यंत “दशांगुल स्थान" तृतीय अंश है। प्रथम अंशमें वहिर्जगतके क्रियासमूह सम्पादित होते हैं। यह स्थान रजस्तमोप्रधान है। यहां निरवच्छिन्न कर्मप्रवाह वर्तमान रहनेसे इसका नाम "कुरुक्षेत्र" वा "कार्यक्षेत्र" हुआ। तृतीय अंश सत्वतम प्रधान है। इस स्थानमें क्रियाविहीन स्थिर प्रकाश वर्तमान है, इसलिये इसका नाम "धर्मक्षेत्र" हुआ। और द्वितीय अंश, जो मन बुद्धिकी लीलाभूमि है, जहांसे सूक्ष्मभूतसमूह बहिर्मुख होकर इन्द्रियोंको क्रियाशील करता है, पुनश्च अन्तर्मुख होकर आत्मज्योतिको प्रकाश करता है, वही सुषुम्नासंलग्नं षट् का रजसत्वप्रधान हैं। यह अंश धर्म और कर्म दोनों की श्राश्रयभूमि है इसलिये इसका नाम "धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र” हुआ। शरीरका यह अंश बजासत्वप्रधान होनेसे भी इसके विशेष २ स्थानमें उन दोनों गुणोंकी निया अल्पसधिक (ोड़ा बहुत) परिमाणमें है। जो स्थान मूलाधारके पास और कुरुक्षेत्रके निकट है, यहां रजोगुणका परिमाण अधिक, और सबगुणका कम है। वैसे ही जो स्थान आज्ञाचक्रसे भिड़ा हुआ और धर्म - ८
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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