SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - श्रीमद्भगवद्गीता . व्याख्या। साधक ! अब देख लो; यही अपनी शुक्ल और कृष्ण गति है, समझ लो ; प्रत्यक्ष करके हड़ अभ्यासके द्वारा ऐसा आयत्त करो, जिस करके कार्यकालमें तुम्हारा कल्याण "हस्तामलकवत्" पुनरावृत्ति कराती है // 26 // नो मृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन / तस्मात् सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन // 27 // अन्वयः। हे पार्थ ! कश्चन योगी एते सृती ( मागौं ) जानन् न मुह्यति; तस्मात् हे अर्जुन ! सर्वेषु कालेषु योगयुक्तः भव // 27 // अनुवाद / हे पार्थ ! इन दो पन्थोंको जाननेसे कोई योगी मोहको नहीं प्राप्त होते; अतएव, हे अर्जुन! तुम सर्वकालमेंही योगयुक्त हो रहो // 27 // व्याख्या। यह शुक्ल और कृष्ण गति केवल अभ्यास द्वारा योगियोंको वायत्त होती है। यदि कदाचित् योगीगण शुक्लगति न ले सके लक्ष्यभ्रष्ट होनेके लिये उनको कृष्णगति हो मिल जाय, तो पुनजम्म लेकर भी उत्तम सुकृति फल हेतु योगीगण जातिस्मरत्व प्राप्त होकर मायाके इन्द्रजालमें और मोहित नहीं होते हैं। जातिस्मरत्वसे तुम्हारा कौन काम है भाई ! तुम अपने प्रति निश्वास में ही शुक्लगति को लक्ष्य करके बेठे रहो // 27 // दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम् / अत्येति तत् सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् // 28 // अन्वयः। वेदेषु यज्ञषु तपःसु दानेषु च एव यत् पुण्यफलं प्रदिष्ट, योगी इदं (तत्वं ) विदित्वा तत् सर्व प्रत्येति, अयं परं स्थानं च उपैति // 28 //
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy