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________________ 362 श्रीमद्भगवद्गीता भो उनको फिर देह धारण करना होता है। कारण कि जबतक चित्त प्रकृतिको छोड़कर पुरुषमें न मिल जाय, तबतक प्रकृतिके वशमें जन्ममृत्यु होता ही रहेगा। सबसे ऊंचे क्षेत्र ब्रह्मभुवनमें जानेसे भी निस्तार नहीं। परन्तु यदि चित्त उस समय ( मरण समय ) चैतन्य को धारण कर सके, तो जिस किसी भी स्थानमें रहकर शरीर त्याग करें, उनको फिर जन्म लेना पड़ेगा // 16 // सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः / रात्रि युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः // 17 // अन्वयः। ब्रह्मणः यत् सहस्रयुगपर्यन्तं अहः सहस्रयुगान्तां ( च ) रात्रिं ( ये ) विदुः ते जनाः // 17 // अनुवाद। जो लोग ब्रह्माका सहस्र युग पर्यन्त एक दिन तथा सहस्र युगान्त' एक रात्रि जानते हैं उन्हींको अहोरात्रविद् कहते हैं // 17 // व्याख्या। "युग" कहते हैं दो को,- एक खींचना और एक फेंकना। इस शरीर में निश्वास और प्रश्वासका खेल अर्थात् खींचने और फेकनेकी क्रिया अष्ट. प्रहरके भीतर 21600 बार होती है। क्रिया करते करते साधकका निश्वास और प्रश्वास शरीरके भीतर जब अति सूक्ष्म होकर क्रिया करे, तब दिनमानके चार प्रहरमें 1000 बार और रात्रिमानके चार प्रहरमें 1000 बार यह 2000 बार नियमित (बिना श्रायाससे स्वभावतः ) हो पानेसे, ब्राह्मीस्थिति पाकर (२य अः 71 / 72 श्लोक ) और उसे भोगकर समझकर साधक ब्राह्मण होते हैं। इसलिये, अहः = प्रकाश और रात्रि अप्रकाश, यह प्रकाश और अप्रकाशका परिज्ञान लाभ कर 'अहोरात्रविद्' हो पड़ते हैं ; अर्थात् ब्राह्मी स्थिति क्या है, सो भी जान लेते हैं, और जगत् व्यापार क्या है उसे भी साधक जान लेते हैं // 17 //
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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