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________________ अष्टम अध्याय 361 लोग नीचे में और उतरते, विस्तार ब्रह्म में पड़ करके सर्वसिद्धिकी आश्रय स्वरूप ब्रह्मही हो जाते हैं।॥ 15 // आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पनरावर्तिनोऽर्जुन / मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते // 16 / / अन्वयः। हे अर्जुन ! आब्रह्मभुवनात् लोकाः पुनरावत्तिनः ( पुनरावर्तनस्वभावाः ), तु ( किन्तु ) हे कौन्तेय ! मां उपेत्य पुनर्जन्म न विद्यते // 16 / / अनुवाद। हे अर्जुन ! ब्रह्मलोक पर्यन्त पहुँचनेसे भी लोग पुनरावर्तन करते हैं ; परन्तु कौन्तेय ! मुझको पानेसे पुनर्जन्म और नहीं होता // 16 // व्याख्या। अपरिपक्व अथच उन्नतिशील साधक जब समाधिसाम्यका सुख भोग करके पुनः संसार-अवस्थामें उतर पाकर समाधिस्थिति-अवस्थाका आलोचना करते हैं ; तब साधक क्रियाका परावस्था और संसार अवस्थाका फल प्रत्यक्ष करके इस प्रकार ज्ञान लाभ करते हैं सूर्यकोषके भीतर जो कुछ है उसीको भुवन कहते हैं। स्थूल शरीराभिमानीको ब्रह्मा कहते हैं। इस ब्रह्मासे आदि लेके स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज, जो कुछ प्रजा हैं. समस्तही भुवनवासी हैं / यह सबही बारंबार जन्म मृत्युके श्राधीन होकर घूमते रहते हैं; क्योंकि, पूर्वकथितके यथार्थ “मैं” में इन सबका परिज्ञान नहीं हैं (५वें श्लोककी व्याख्या देखो)। उसी "मैं" का परिज्ञान होनेसे ही हे शरीराभिमानी बद्ध साधक ! और तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं रहता। __ भुवन चौदह हैं। जो सबके ऊपर है वही ब्रह्मभुवन वा ब्रह्माका सत्यलोक है। यह सत्यलोक सहस्रारमें अवस्थित है, इसलिये प्राकृतिक अधिकारमुक्त है। यदि साधक मृत्युकालमें साधनबल करके इस सत्यलोकमें भी चला आवे, किन्तु चैतन्यमें चित्तलय न कर सके, तो
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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