SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम अध्याय ३५३ योगमें युक्त * हो जायगा, अर्थात् जब मन गुरूपदिष्ट क्रियामें मूलाधारसे योग्यस्थान हो करके चढ़ते चढ़ते कूटस्थ ब्रह्ममें पहुंच करके 'अहं ममत्व' एकदम भूल जायगा, जब केवल मात्र 'अकेले हूँ' को छोड़कर और कोई बोध न रहेगा, फिर भी, - क्रमानुसार 'अपने हूँ' इस प्रकार करके बोध भी न रहेगा, अथच चैतन्य विलुप्त न हो करके इक्षुरस में घोरे हुए चीनी सदृश चैतन्यधनमें एक हो करके मिल रहेगा, तबही 'योगयुक्त' और 'अनन्यगामी 'चेतन' कहा जावेगा । इसी अवस्था में षोड़शकलाविशिष्ट छाया विहीन अङ्गुष्ठमात्र तैजस पुरुष का दर्शन होता है ॥ ८ ॥ कवि पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः । सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥ ६ ॥ प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव । भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपति दिव्यम् ॥ १० ॥ अन्वयः । यः प्रयाणकाले भक्त्या युक्त: ( सन् ) अचलेन मनसा योगबलेन च एव प्राणं भ्रुवोः मध्ये सम्यक् आवेश्य कविं पुराणं अनुशासितारं अणोरणीयांसं सर्वस्य धातारं अचिन्त्यरूपं तमसः परस्तात् आदित्यवर्ण अनुस्मरेत्, सः तं दिव्यं परं पुरुषं उपैति ॥ ९ ॥ १० ॥ * एक वस्तुको दूसरे वस्तुसे मिलाय देनेका नाम योग है; इसी तरह सोनेके साथ ताम्बेको गलाय देनेसे, दोनों गलकर एक हो जाता है सोनाही सोना भासमान होता है, ताम्बा नहीं पहिचाना जाता, तैसे सोनेके भीतर ताम्बा रहनेके सदृश, साधना द्वारा पुरुष में महामाया लयके पश्चात् साधक के पास और कभी माया विकार का प्रकाश नहीं रहता; ऐसा एक हो जानेका नाम युक्तावस्था कहते हैं ॥ ८ ॥ —२३
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy