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________________ ३५२ श्रीमद्भगवद्गीता अनुवाद | अतएव सर्वकालमें मुझको स्मरण करो और युद्ध करो; तुम्हारा मन और बुद्धि हममें अर्पित होनेसेही तुम निःसन्देह ( संशय रहित मुझको हो पावोगे ॥ ७ ॥ व्याख्या । 1 इसलिये कहता हूँ, कि सर्वकालमें अर्थात् "सर्वदा " ( रात्रि साढ़े नौ बजे के बाद, साढ़े चार बजे पय्यन्तमें ) हमारा अणु (प्रणव) का स्मरण करते करते युद्ध ( प्राणायाम आदि क्रिया ) करो । युद्ध कहते हैं मारपीटको मारने जाओ तो एक बार उठाने होता है और एक बार फेंकना होता है; तुम भी जब श्वास (इषु) फेंकोगे और उठाओगे, तब गुरूपदेश अनुसार क्रिया से पृथिवी जलमें, जल तेजमें, तेज वायुमें, वायु आकाशमें, आकाश इन्द्रिय पञ्चकमें, इन्द्रियों को तन्मात्रा, तन्मात्रा अहंकार में, अहकार महत्तव में, और महतको जीव में योजना करोगे । इस प्रकार योजनाका नाम ही भूतशुद्धि है इस भूतशुद्धि द्वारा स्वरूपस्थ होके जीव - उपाधिको परित्याग करोगे । ऐसा होनेसे ही तुम संशय शून्य “मैं” हो जाओगे | क्योंकि मन-बुद्धिके ऊपर में ही "मैं" है, इन दोनों को हममें फेंकनेसे ही 'मैं' हुआ जाता है ॥ ७ ॥ अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना । परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ ८ ॥ अन्वयः । हे पार्थ! अभ्यासयोगयुक्त ेन नान्यगामिना चेतसः अनुचिन्तयन् ( शास्त्राचाय्यपदेशमनुध्यायन् ) दिव्यं परमं पुरुषं याति ( गच्छति ) ॥ ८ ॥ अनुवाद । हे पार्थ! अभ्यास योग करके युक्त ( एकाग्र ) तथा अनन्यगामी चित्त द्वारा अनुचिन्तन करते करते (योगी) दिव्य परम पुरुषको प्राप्त होते हैं ॥ ८ ॥ व्याख्या | ऊपर में लिखा हुआ यह जो भूतशुद्धि और प्रकृतिलयका उपदेश है, मनमें स्मरण करते मात्र ही वह नहीं होता । पष्ठ अध्याय के उपदेश अनुसार बहु दिन अभ्यास करते करते साधक जब
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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