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________________ ३४० श्रीमद्भगवद्गीता निगुणकी उपासना नहीं होता। सगुणकी उपासना द्वारा निगुणमें परिणत होने होता है। इसलिये भगवान्ने कहा है, कि मुझको अर्थात् सगुण अक्षर ब्रह्म परमात्माको आश्रय करनेसे ही जीव सर्वज्ञ हो करके अध्यात्म और कर्म आदि सब कुछ जान सकता है, तथा निर्गुण ब्रह्मको भी प्राप्त होता है * ॥ २६ ॥ साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञच ये विदुः। प्रयाणकालेऽपि च मा ते विदुयुक्तचेतसः ।। ३० ॥ अन्वयः। ये साधिभूताधिदैवं साधियज्ञं च मां विदुः (जानन्ति ), ते प्रयाणकाले अपि च ( मरणकाले अपि ) युक्तचेतसः ( समाहितचित्ताः सन्तः ) मां विदुः (जानन्ति ) ॥ ३०॥ अनुवाद। जो लोग मुझको अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञके साथ जान सकते हैं, वह लोग मरण कालमें भी युक्तचित्त हो करके मुझको जान सकते है।॥३०॥ ध्याख्या। मृत्युकाल विषम काल है। जप, तप जो कुछ है इसी समयके लिये है। मृत्युके अव्यवहित पूर्वमें जीवात्मा सूक्ष्म शरीरको * अक्षर ब्रह्म ही आश्रयणीय है,-क्षर ब्रह्म और परंब्रह्म आश्रयणीय नहीं है, उसे उदाहरण द्वारा समझाया जाता है। जैसे जलका कठिन, तरल और वाष्प्य यह तीन अवस्थायें हैं, इसके भीतर तरल अवस्था ही जीवका जीवन है, उसीसे जीविका सम्पादन होती है; कठिन अवस्था जीविकाका विघ्न उत्पादन करता है; और वाष्प्य अवस्था आयत्तातीत है; परन्तु विद्वान विद्या-बलसे तरलसे ही इच्छामात्र कठिन और वाष्प्य अवस्था उत्पादन कर सकते हैं।-ठीक इसी प्रकार कार्यब्रह्म जीवके बन्धन, और परं ब्रह्म साध्यातोत है; शब्द ब्रह्मही अभीष्टप्रद है। यह मन्त्ररूपी है। इसको एकान्त मन करके अवलम्बन करनेसे ही यह मनोहर चिद्धन रूपसे प्रत्यक्ष होता है; तब सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हो करके इच्छानुसार सर्वव्यापी तथा परं ब्रह्ममें लोन हुआ जाता है ॥ २९॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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