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________________ ३३८ श्रीमद्भगवद्गीता प्रकारसे सुख-दुःख प्रभृति मोहमय दोनों भावके वशीभूत होकरके अपने ( "मैं" ) को भूल जाता है, संसारके तरङ्गमें मोहित होके रहता है ॥२७॥ येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । ते द्वन्द्वमोहनिमुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥२८॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) येषां पुण्यकर्मणां ( पुण्याचरणशीलाना ) जनानां पापं (मनसः चाश्चल्यं ) अन्तगतं (नष्ट ), ते द्वन्द्वमोहनिम्मु काः ( द्वन्द्वनिमित्ताने मोहेन निम्मु काः ) दृढ़वताः ( एकान्तिनः सन्तः ) मा भजन्ते ॥ २८ ॥ __ अनुवाद। परन्तु जो सब पुण्यकर्मा लोगोंका पाप विनष्ट हुआ है, वह लोग द्वन्द्व मोहसे मुक्त और दृढ़वत हो करके मुझको भजते रहते हैं ॥ २८ ॥ व्याख्या। जिस कर्मसे शरीर और मन पवित्र होता है, उसी को पुण्यकर्म कहा जाता है। सात्त्विक आहार, सात्विक व्यवहार, साविक क्रिया,-इन सभोंसे शरीर पवित्र होता है, अर्थात शरीरमें मत्तता तथा ग्लानि विहीन निर्मल ईश्वरीय तेजका सञ्चार होता है; और प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि इन सब साधनासे मन पवित्र होता है। इस कारण शरीर और मनको पवित्र करनेवाला यह सबही पुण्यकर्म है; और इन सब पुण्यकर्म जो लोग करते हैं। वह लोग पुण्यकर्मा है। पुण्यकर्मा होनेसे ही पाप नष्ट होता है। शरीर और मनके मैलका नाम पाप है। रजस्तमप्रधान रस शरीरका मैल है; यह मैल आनेसे कूटस्थमें आत्मज्योति-प्रतिफलन-शक्तिका हास होता है, तब और अन्तर्दृष्टिसे कुछ भी लक्ष्य नहीं होता। विषयासक्ति और अनुदारता मनके मैल हैं; मनका मैल ही विषम अनिष्टकरी है, क्योंकि, इस मैलके रहनेसे साधन पथमें अग्रसर नहीं हुआ जाता। पाप नष्ट होनेसे ही द्वन्द्वमोहसे मुक्ति पाई जाती है, अर्थात् वैषयिक सुख दुःखमें और अभिभूत नहीं होने पड़ता। अतएव
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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