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________________ ३३७ सप्तम अध्याय सञ्चार होकर सूर्य छिप जानेसे लोकचक्षु उस मेघावरण भेद करके सूर्यको प्रकाश नहीं कर सकता। अर्थात् सूर्यको देखने नहीं पाता, परन्तु मेघ जितना ही धना होय, सूर्यकी ज्योति उसको भेद करके जगतको प्रकाश करती है; अल्पज्ञ जीव और सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान ईश्वर में भी ठीक वैसा ही प्रभेद है। जो साधक साधनाके धन ज्ञान-भक्ति द्वारा अहंकारका नाश कर सकते हैं। उनके चक्षुकी ज्योतिसे आवरण शक्तिका नाश होता है, वा हीन प्रभा हो जाता है, इस कारण करके परमेश्वर साधकके पास प्रकाश होता है ॥ २६ ॥ इच्छाद्वषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । सर्वभूतानि सम्होहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥२७॥ अन्वयः। हे भारत परन्तप ! सर्गे (स्थूलदेहोत्पत्तौ सत्यां ) सर्वभूतानि इच्छाद्धषसमुत्थेन ( इच्छाद्व पोद्भवेन ) द्वन्द्वमोहेन (शीतोष्ण-सुखदुःखा दिद्वन्द्वनिभित्तो मोहो विवेकभ्रंशः तेन ) सम्मोहं यान्ति ( अहमेव सुखोदुःखीचेति गाढ़तरमभिनिवेशं प्राप्नुवन्ति ) ॥ २७ ॥ अनुवाद। हे भारत परन्तप ! स्थूल देह उत्पन्न होनेसे ही प्राणियां इच्छाद्वेष-जनित द्वन्द्व मोहसे मोह प्राप्त होते हैं ॥ २७ ॥ व्याख्या। जीव कब योगमायाके वशमें पड़के अज्ञानान्ध होता है ? इस प्रकारका प्रश्न उठाकर उसका उत्तर स्वरूप इस श्लोकमें कहा हुआ है कि, जीव जन्म लेते मात्र ही योगमायाके आधीन होता है। जिस समय जीवका सर्ग अर्थात् स्थूल शरीर धारण वा जन्म होता है, तत्क्षणात् उसके मनमें इच्छा-द्वषका सञ्चार होता है अर्थात् शारीरिक स्वच्छन्दताके प्रति इच्छा और अस्वच्छन्दताके प्रति द्वष आता है। इस इच्छा द्वषके आनेसे ही द्वन्द्वमोहकी उत्पत्ति होती है। अर्थात् जीव स्वच्छन्दतामें सुखबोध करके स्वस्थ (चुपचाप) रहता है, और अस्वच्छन्दतामें दुःखबोध करके रोता रहता है। इस -२२
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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