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________________ ३२४ श्रीमद्भगद्गीता (ब) जाता है; अतएव उन सबके अन्तरिन्द्रिय गुणोंके आवरणमें आवृत्त होनेसे, वह लोग सर्वदर्शी नहीं हो सकते। इसलिये जो वस्तु परात्पर और अव्यय तथा इस त्रिगुणमय जगत्के आश्रय है, उस गुणातीत वस्तुको अर्थात् “मैं” को नहीं जान सकते ॥ १३ ॥ दैवी ह्यषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ १४ ॥ अन्वयः। मम एषा गुणमयो दैवो ( देवस्य ममेश्वरस्य विष्णोः स्वभावभूता ) माया दुरत्यया ( दुस्तरा ) हि ( प्रसिद्धमेतत् ); ( तथापि ) ये माम् एव प्रपद्यन्ते ( भजन्ति ) ते एतां ( सर्वभूतचित्तमोहिनी) भायां तरन्ति ( अतिक्रामन्ति, संसार बन्धनात् मुक्तः सन् मां अभिजानन्तीति भावः ) ।। १४ ॥ अनुवाद। हमारा यह गुणमयो देवो माया दुस्तरा है; परन्तु जो एकमात्र मुझको भनते रहते हैं, वह लोग इस मायाको अतिक्रम कर सकते हैं ।। १४ ॥ व्याख्या। माया, सत्व रजः तमः इन तीन गुणोंकी समष्टि कह करके गुणमयी, और ईश्वरके स्वभावभूता कह करके देवी है। इस मायाको अतिक्रम करना बड़े दूरकी बात है, अर्थात् अतिक्रम करनेकी चेष्टा करके इसको अतिक्रम किया नहीं जा सकता, इसलिये दुस्तरा है; क्योंकि, माया पदार्थ ऐसा ही है कि, मायांबन्धन मोचनकी चेष्टा जितना ही किया जाय, उसमें तितना ही लिपटाय पड़ने होता है, (मनही मनमें जैसे आकाशके डोरीकी गांठ बांधकर पुन खोलनेकी चेष्टा विफल होती है-तैसे ), परित्राण पाया जाता ही नहीं। यह प्रसिद्ध है। चण्डी ( दुर्गा ) प्रभृति शक्तिपन्थके उपदेश यही है। किन्तु सब चेष्टाको परित्याग करके, मायाका आक्रमण दमन करनेवाला चेष्टामात्र भी न करके, माया जो करे करने दो, उस विषयमें मोहित होना तो दूरकी बात है उसके ऊपर भ्रक्षेप भी न करके सर्वान्तःकरणसे आत्मसेवामें रत होना होता है, अर्थात् आत्ममन्त्रको
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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