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________________ सप्तम अध्याय ३२३ व्याख्या। (१५) "गुणमय भावत्रयका कारण मैं हूँ"।-कर्म संस्कार वश करके जीवके मनमें नाना प्रकारके भावका उदय होता है। वह सब भाव कोई कोई सात्विक, कोई कोई राजसिक, और कोई कोई तामसिक है। शम, दम प्रभृति सात्त्विक भाव; हर्ष, दर्प प्रभृति राजस भाव; और शोक, मोह प्रभृति तामस भाव है। आत्मभावसे ही ये सब भाव उत्पन्न हैं. अर्थात् आत्मसम्पर्क करके प्रकृति क्रियाशीला होनेसे प्राकृतिक विकार जो कुछ है उन सबका आश्रय का कारण आत्मा है। इसीलिये भगवान् कारण रूपसे सब भावोंका धाता है। (१६) “मैं उन सबमें नहीं, वे सब हममें हैं"। परमात्मा कारण होनेसे भी निर्लिप्त, प्राकृतिक विकार उनको स्पर्श नहीं कर सकते । अतएव प्राकृतिक भाव प्रात्माको आश्रय करके रहनेसे आत्माके आधीन हैं; परन्तु आत्मा श्राधीन नहीं है। आत्मा नित्य-शुद्ध-बुद्धमुक्त स्वभाव सम्पन्न है। आत्मा परम कारण है, आत्माका कारण कोई नहीं। इसलिये सबका धाता आत्मा है ॥ १२॥ त्रिभिगुणमयर्भावैरोभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥१३॥ - अन्वयः। इदं सर्व जगत् एभिः त्रिमिः गुणमयःभावः मोहितं (अविवेकतामापादितं सत् ) एभ्यः परं अव्ययं मां न अभिजानाति ॥ १३ ॥ अनुवाद। यर समस्त जगत् इसी त्रिगुणमय भाषसे मोहित करके, इन सबसे श्रेष्ठ जो मैं अव्यय हूँ; मुझको जान नहीं सकते ॥ १३ ॥ व्याख्या। जगत्के समस्त जीव ही सात्त्विक, राजसिक और तामसिक इस त्रिगुणमय भावसे मोहित हैं, अर्थात् तीनों गुणकी मोहिनी शक्तिसे आकृष्ट हो करके, गुणकी क्रिया ही नित्य, पवित्र और उत्तम है इस प्रकार ज्ञानसे अविवेकके मारे उसीमें मोहित हो
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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