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________________ ३१८ श्रीमद्भगवद्गीता व्याव्या। भगवान् जो सर्व भूतोंके भीतर है, तिनमें जो यह सब गाया हुआ है, सो कैसे, वही कथा वह ८ से १२ पर्यन्त पांच श्लोकमें एक एक करके दिखाते हैं। भगवान् मायामय है। इसलिये वह एक होने पर भी विचित्र कौशलसे "मैं" सज लेकर बहु भावसे व्यक्त होते हैं। प्रकृति उनसे ही उत्पन्न, इसलिये प्राकृतिक पदार्थ उनहींमें गूथा है; वही एकमात्र आश्रय -सूक्ष्म रूपसे सर्वभूतमें ही वर्तमान; चतुर्दश भुवन-समन्वित वृहत् ब्रह्माण्डमें भी जैसे, जीवशरीर-रूप क्षुद्र ब्रह्माण्डमें भी ठीक उसी प्रकारसे ही वह वर्तमान है। इसीलिये योगी अपने शरीर में हो विश्व प्रत्यक्ष्य करते हैं; और अब उपासनामें अपरोक्ष ज्ञान लाभ करनेसे उनके शरीर-रूप विश्वकोषके आश्रय परमेश्वर कहां किस प्रकार विभूतिसे विश्वको धारण करके, उसे देखते हैं। इन पांच श्लोकों में वह सब विभूति सोलह प्रकारसे कहा हुआ है, वही सब एक दो करके कहा जाता है। ____(१) "जलका रस मैं हूँ”–भगवान् "अहं' वा “मैं” रूपसे सुषुम्ना के अभ्यन्तरमें सहस्रार-मूलाधार-व्यापी ब्रह्माकाशमें स्वरूप व्यक्त रहके (जैसे एक मृत्तिका हो बालू, कंकर, कोयला, पत्थर, धातु, रत्न, प्रभृति नाना पदार्थके श्राकारमें परिणत होता है, वैसे ), आत्ममाया द्वारा अहंत्व, विस्तार करके विविध तत्त्वमें परिणत होते हैं। इस करके स्वादिष्ठानमें वह रसतत्व है। रसतत्त्व ही तरल पदार्थ मात्रोंके श्राश्रय है। प्रधानके नामसे तज्जातीय समुदयको समझा जाता है कह करके, अप अर्थात जलके नाम करके कहते हैं कि-मैं रसरूपसे तरलका धाता हूँ। भगवानका अहत्व चित्शक्ति है। (२) "शशिसूर्य्यकी प्रभा मैं हूँ"-भगवान्की वह अहत्व ही सहस्रारमें चिज्ज्योति रूप करके विकाश प्राप्त है; वही ज्योति कूटस्थसे पिङ्गला-मुखमें प्रतिफलित हो करके विवस्वान् वा सूर्य रूप धारण
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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