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________________ ३१७ सप्तम अध्याय एक माला गाथनेमें जैसे एक सूत चाहिये, सूतको मणियोंके भीतर भीतर खींच लेना होता है, पश्चात् जेसे वही सूत जिसको आश्रय करके ही मणिके दाना सब परस्पर पाबद्ध होयके माला नाम धारण करता है, वह सूत भी फिर देखनेमें न आता अथच वही सूत मणियां के माला रचनाका एकमात्र आश्रय वा कारण है, उसको छोड़ करके और कोई दूसरा कारण नहीं; जगत् भी ठीक वैसा ही है। जड़ और चैतन्यके सयोगसे एक एक मणिस्वरूप यह जो असंख्य जीव है, इस असंख्य जीवके भीतर एक "मैं' वर्तमान। इस "मैं" के अस्तित्व अपने अपने सब कोई समझता है, लेकिन कोई देखने नहीं पाता। मणिमय मालाके सूत सरीखे जोवमय जगत्के एकमात्र आश्रय "मैं" हूँ। इसको अब साधक प्रत्यक्ष करते हैं; देखते हैं कि "मैं" से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं,-"मैं" से ही जगत्-प्रपञ्चका उत्पत्ति और नाश होता है,-"मैं" ही परम कारण। असल बात "मैं" ही आत्मा; सहस्रारसे मूलाधार पर्य्यन्त सुषुम्नाके भीतर ब्रह्माकाशमें इनके स्वरूपविकाश; इसलिये यह सर्व तत्त्वोंके भीतर ब्रह्मसूत्र रूपसे वर्तमान। इस ब्रह्मसूत्रमें हो तत्त्व समूह उत्पन्न और अवस्थित है ।।७॥ रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्यायो । प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥८॥ अन्वयः। हे कोन्तेय! अहं अप्सु रसः ( रसतन्मात्रस्वरूपया विभूत्या आश्रयत्त्वेनाप्पु स्थितोऽहमित्यर्थः), शशिसूर्ययोः प्रभा अस्मि (चन्द्र सूयं च प्रकाशरूपया विभूत्या तदा श्रयत्वेन स्थितोऽहमित्यर्थः), सर्व वेदेषु प्रणवः (खरीरूपेषु तन्मूलभूत ओङ्कारोऽस्मि ), खे ( आकाशे ) शब्दः (शब्दतन्मात्ररूपोऽस्मि ), नृषु ( पुरुषेषु ) पौरुष ( उद्यमोऽस्मि)॥८॥. अनुवाद। हे कौन्तेय ! जलका रस मैं, चन्द्र सूर्य की प्रभा मैं, सर्ववेदका प्रणक मैं, आकाशका शब्द मैं, और पुरुषका पौरूष मैं हूँ ॥ ८ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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