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________________ षष्ठ अध्याय अनुवाद। वस्तुतः योगी, पूर्व पूर्व प्रयत्नसे भी अधिकतर यत्नशील होनेसे, क्रमशः निष्पाप होते होते अनेक जन्ममें संसिद्धि लाभ करते हैं, पश्चात् परागतिको प्राप्त होते हैं ।। ४५॥ व्याख्या। भगवान् ४० से ४४ वें पर्य्यन्त श्लोकमें अर्जुनके प्रश्न का उत्तर देकर, अब देखाते हैं कि, योगीत्वही श्रेय है। योगी होकरके मन्दप्रयत्न होने पर भी परागति मिलनेके कारण, छिन्नाघ्र सदृश नष्ट होने नहीं होता। __ योगी अर्थात् योगानुष्ठानमें श्रद्धायुक्त जो, वह "प्रयत्नात् यतमानः” अर्थात् उनका पूर्व प्रयत्नसे परवत्ती प्रयत्न बलवत्तर है। क्योंकि एक दफेकी चेष्टामें योगमार्गमें जितना अभ्यास होता है, दूसरे दफेकी चेष्टामें उतना उठनेमें और कष्ट नहीं होता; कारण यह है कि, प्रथम वारके अभ्यासका संस्कार मनमें दृढ़बद्ध रहता है इसलिये द्वितीय वारमें उसी संस्कारक्शसे क्रिया होता है; इसलिये यत्न विपथमें प्रयुक्त न होनेसे क्रम अनुसार अधिकतर बढ़ता रहता है। योग अभ्यस्त हो आनेसे ही पश्चात् "संशुद्धकिल्बिषः" होना होता है, अर्थात् चित्तशुद्ध होनेसे विषय रमण रूप पाप (चंचलता ) में लिप्त होना नहीं पड़ता। किन्तु चित्तशुद्धि होनेसे भी ध्यान बिना मुक्ति नहीं होती, इसलिये कहा हुआ है कि "अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्"। अब अनेक जन्म क्या है ? - निःश्वास त्याग करके फिर खींच न ले सको तो, जो प्रलय , (मृत्यु ) होता है, उसको महाप्रलय कहते हैं; इस महाप्रलयके बाद .. पुनराय देह धारण करनेका नाम जन्म है। वैसे निःश्वास त्याग करके खींचनेके पूर्व पर्य्यन्त कालको खण्डप्रलय कहते हैं। इस खण्डप्रलयके बाद पुनराय प्रश्वास ग्रहण करनेका नाम भी जन्म है। प्रयत्नके तारतम्यके अनुसार सिद्धिलाभका कालका भी तारतम्य होता है। प्रयत्न मृदु होनेसे महाप्रलयके बाद जो जन्म है, उस प्रकारके अनेक जन्मके -२०
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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