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________________ 'षष्ठ अध्याय _____ २९७ प्राणायामादि द्वारा वश्यात्मा होनेसे ही पहले पहल श्रद्धा आती है, अर्थात् मन भक्ति पूर्वक कूटस्थमें धृत होता है, प्रसन्न ( प्रकृष्ट रूप से स्थिर ) होता है। पश्चात् वीर्यकी उत्पत्ति होती है, अर्थात् मन ब्रह्मतेज करके बलीयान् होता है। तब स्मृतिका उदय होता है, अर्थात् “मैं” ही जो ब्रह्म हुँ वह स्मरणमें आता है। इस स्मृतिके सहारेसे ही मन तन्मना होकरके तन्मयत्व ले करके साम्यभावमें स्थित होता है; यही समाधि है। इस समाधिके बाद प्रज्ञाका उदय होता है, अर्थात् आत्मस्वरूप साक्षात्कार होता है, इस प्रज्ञाके बाद ही योग वा चतन्य-समाधि प्राप्ति होती है। इस चैतन्य-समाधिसे ही कैवल्य वा मुक्ति होती है। प्रयत्न करके उस उस उपाय क्रममें यदि मन लय न हो, तो जो समाहित अवस्थाके सदृश अवस्था आती है, उसमें कैवल्य प्राप्ति नहीं होती, वह जड़समाधि वा वाजिगरों की वाजि होकर खड़ी होती है। उससे केवल भोग लाभ होता है, इसलिये पुनः संसारमें आना ही पड़ता है ॥ ३६॥ अर्जुन उवाच। अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाचलितमानसः। अप्राप्य योगससिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥ ३७॥ अन्वयः। अजुनः उवाच । हे कृष्ण ! अयतिः ( यः प्रथमं योगे प्रवृत्तः ततः परं तु सम्यक् न यतते ) श्रद्वयोपेतः ( किन्तु आस्तिक्यबुद्धियुक्तो वत्त'ते ) योगात् चलितमानसः ( किम्बा भ्रष्टस्मृतिः सन् योगात् क्षलितो भवति ), योगसंसिद्धि अप्राप्य ( सः योगस्य संसिद्धिं कंवल्यं अप्राप्य ) को गतिं गच्छति ( प्राप्नोति ) ?॥ ३७॥ अनुवाद । अर्जुन कहते हैं, हे कृष्ण ! जो साधक योगमें प्रवृत्त हो करके योग साधनमें यतन नहीं करते, किन्तु आस्तिक्य-बुद्धियुक रहते हैं, किम्बा जो साधक
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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