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________________ .:२९६ श्रीमद्भगवद्गीता अविचलित होता है। तब इच्छा करनेसे ही चित्तको जहां तहां "संगत किया जा सकता है। --- वैराग्य क्या ?--कि 'दृष्टानुश्रविक-विषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्' अर्थात् दृष्ट और अनुश्रविक ये दो प्रकार विषय भोगके ऊपर वितृष्णा वा इच्छाराहित्यका नाम वैराग्य है। जोवद्दशामें इहलोकमें जो कुछ भोग किया जाय, उसका नाम दृष्टविषय है, और मृत्युके बाद परलोकमें वेदोक्त मतानुसार सुकर्म-फल करके जो स्वर्गादिभोग हो, उसका नाम अनुश्रविक विषय है। इस प्रकार वैराग्य उत्पन्न होनेके पश्चात् , प्रकृति-पुरुषका पृथकता प्रत्यक्ष होता है। तब प्राकृतिक गुणके ऊपर भी वितृष्णा जनमता है। प्राकृतिक ऐश्वर्या और प्रलोभित नहीं कर सकता, बिना विघ्न मनको भी निरोध किया जाता है ॥ ३५ ॥ असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः॥३६ ॥ अन्धयः। असंयतात्मना योगः दुष्प्रापः इति मे मतिः; तु ( किन्तु ) वश्यात्मना यतती ( भूयोऽपि प्रयत्नं कुर्वता सता ) योगः ( केवल्यमित्यर्थः ) उपायतः ( श्रद्धावोायु पायक्रमेण ) अधाप्तुं शक्यः ॥ ३६ ॥ . अनुवाद। असंयत चित्तके लिये योग दुष्प्राप्य है, यही हमारा मत है; परन्तु मनको जो वश कर चुके हैं, यथाविहित उपाय क्रम अनुसार यन करनेसे वह पुरुष योग प्राप्त होनेके समर्थ होते हैं ।। ३६ ॥ व्याख्या। अभ्यास और वैरान्य ही चित्त संयम करनेका उपाय है। इसे जो नहीं कर सकते, उसका योग नहीं होता। अभ्यास और वैराग्यसे मनको वश वा संयत कर सकनेसे योगकी अधिकारी होता है, तब प्रयत्न करनेसे ही श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधिप्रज्ञा यह उपाय क्रमसे योग प्राप्ति होती है। इसीलिये मुमुक्षुका योग 'एषायप्रत्यय' है।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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